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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
    ऋषिः - सोमार्क देवता - बृहती गर्भा त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    पू॑र्वाप॒रंच॑रतो मा॒ययैतौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्। विश्वा॒न्यो भुव॑नावि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायसे॒ नवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम् । च॒र॒त॒: । मा॒यया॑ । ए॒तौ । शिशू॒ इति॑ । क्रीड॑न्तौ । परि॑ । या॒त॒: । अ॒र्ण॒वम् । विश्वा॑ । अ॒न्य: । भुव॑ना । वि॒ऽचष्टे॑ । ऋ॒तून् । अ॒न्य: । वि॒ऽदध॑त् । जा॒य॒से॒ । नव॑: ॥१.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वापरंचरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवनाविचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वऽअपरम् । चरत: । मायया । एतौ । शिशू इति । क्रीडन्तौ । परि । यात: । अर्णवम् । विश्वा । अन्य: । भुवना । विऽचष्टे । ऋतून् । अन्य: । विऽदधत् । जायसे । नव: ॥१.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (एतौ) यह दोनों [सूर्य, चन्द्रमा] (पूर्वापरम्) आगे-पीछे (मायया) बुद्धि से [ईश्वरनियम से] (चरतः) विचरते हैं, (क्रीडन्तौ) खेलते हुए (शिशू) दो बालक [जैसे] (अर्णवम्)अन्तरिक्ष में (परि) सब ओर (यातः) चलते हैं। (अन्यः) एक [सूर्य] (विश्वा) सब (भुवना) भुवनों को (विचष्टे) देखता है, (अन्यः) दूसरा तू [चन्द्रमा] (ऋतून्)ऋतुओं को [अपनी गति से] (विदधत्) बनाता हुआ [शुक्ल पक्ष में] (नवः) नवीन (जायसे)प्रकट होता है ॥२३॥

    भावार्थ

    सूर्य और चन्द्रमाआकाश में घूमते हैं। चन्द्र आदि लोकों को सूर्य प्रकाश पहुँचाता है। चन्द्रमाशुक्लपक्ष में एक-एक कला बढ़ता और वसन्त आदि ऋतुओं को बनाता है। हे स्त्री-पुरुषो ! जैसे यह सूर्य-चन्द्रमा ईश्वरनियम पर चलकर संसार का उपकार करते हैं, वैसे ही तुम दोनों उपकार करो ॥२३॥मन्त्र २३, २४ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।१८, १९ और ऊपर आ चुके हैं-अ० ७।८१।१, २, तथा मन्त्र २३ के तीन पद फिर आयेहैं-अ० १३।२।११ ॥

    टिप्पणी

    २३−अयं मन्त्रोव्याख्यातः-अ० ७।८१।१ ॥

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    विषय

    दम्पती का कार्यविभाग

    पदार्थ

    १. घर में पहुँचकर (एतौ) = ये दोनों युवक-युवति [पति-पत्नी] (शिशू) = स्वाध्याय के द्वारा अपनी बुद्धि को तीव्र बनानेवाले होते हुए (मायया) = प्रज्ञान के द्वारा (पूर्वापरं चरत:) = [पूर्वस्मात् उत्तरं समुद्रम्] ब्रह्मचर्य से गृहस्थ में प्रवेश करते हैं। ब्रह्मचर्याश्रमरूप प्रथम समुद्र को तैरकर गृहस्थाश्रमरूप द्वितीय समुद्र में आते हैं। इस (अर्णवम्) = समुद्र में (क्रीडन्तौ) = क्रीडा की मनोवृत्ति बनाकर सब कर्त्तव्य-कर्मों में गतिवाले होते हैं। इस मनोवृत्ति के कारण ही ये ऊँच-नीच में घबरा नहीं जाते। इस वृत्ति के अभाव में वस्तुत: संसार बड़ा कष्टमय प्रतीत होने लगता है। २. इन पति-पत्नी में (अन्य:) = एक पति तो (विश्वा भुवना विचष्टे) = घर में प्रवेश करनेवाले सब प्राणियों का ध्यान [look after] करता है। पति का कार्य रक्षण ही तो है [पा रक्षणे]। घर में सब आवश्यक सामग्री का वह व्यवस्थापन करता है। (अन्यः) = गृहस्थनाटक का दूसरा मुख्य पात्र 'पत्नी' (ऋतुन् विदधत्) = गर्भाधान के लिए उचित समयों को धारण करती हुई (नवः जायसे) = फिर नवीन जन्म लेती है। इस प्रकार वह एक नये प्राणी को संसार में लाती है। पत्नी का कार्य उत्कृष्ट सन्तान को जन्म देना है और पति ने उस सन्तान के रक्षण व पोषण के सब साधनों को जुटाने का ध्यान करना है।

    भावार्थ

    समझदार पति-पत्नी क्रीड़क की मनोवृत्ति से चलते हुए गृहस्थ को बड़ी सुन्दरता से निभाते हैं। पत्नी एक नव-सन्तान को जन्म देती है तो पति उसके रक्षण व पोषण का उत्तरदायित्व लेता है।

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    भाषार्थ

    (एतौ) ये दोनों पति और पत्नी (मायया) प्रज्ञापूर्वक (पूर्वापरम्) पूर्व अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम की ओर, गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम की ओर, वानप्रस्थाश्रम से संन्यासाश्रम की ओर (चरतः) विचरते हैं, और (शिशु) शिशुओं के सदृश (क्रीडन्तौ) खेलते हुए (अर्णवम्) गृहस्थ समुद्र को (परि) परित्याग करके (यातः) अगले आश्रम में चले जाते हैं। (अन्यः) एक अर्थात् पति (विश्वा भुवना) सभी गृहस्थ-भुवनों की (विचष्टे) देख-भाल करता है, और (अन्यः) दूसरी तू हे पत्नि ! (ऋतून्) ऋतुधर्मों को (विदधत्) प्रकट करती हुई (नवः) नवीन नवीन रूप में (जायसे) प्रकट होती रहती है ।

    टिप्पणी

    [माया प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। परि (अर्णवम्) "अपपरी वर्जने" (अष्टा० १।४।८८); तथा “परेर्वचने वा वचनम्" द्वारा परि१ अर्णवम् यात्=अर्णवं गृहस्थाश्रमं परित्यज्य यातः। अर्णवम्=समुद्रम्। मनुस्मृति में गृहस्थ को सागर अर्थात् समुद्र से उपमित किया है। यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।६/९० व्याख्या — मन्त्र में पति और पत्नी का वर्णन सूर्य और चन्द्र के दृष्टान्त द्वारा किया है। सूर्य और चन्द्र के सम्बन्ध में कहा है कि ये परमेश्वर की प्रज्ञा द्वारा अर्णव अर्थात् अन्तरिक्ष में पूर्व से पश्चिम तक विचरते हैं। सूर्य और चन्द्र परमेश्वर द्वारा दृढ़ नियम में गतियां कर रहे हैं, इनकी नियमबद्ध गतियों से इन के एक बुद्धिमान् नियन्ता का अनुमान होता है। उसी बुद्धिमान् की प्रज्ञा द्वारा प्रेरित हुए हुए ये पूर्व से पश्चिम की ओर नियमित गतियां कर रहे हैं। ये दोनों मानों परमेश्वरीय माता के शिशु हैं, जोकि अन्तरिक्ष की क्रीडाभूमि में खेल रहे हैं। इन में एक अर्थात् सूर्य मानो चलता हुआ निज सौर मण्डल के भुवनों का निरीक्षण करता हुआ उन्हें नियमों में चलाता है, और दूसरा अर्थात् चन्द्रमा ऋतुओं अर्थात् तिथि, सप्ताह, पक्ष और मासरूपी काल का निर्माण कर रहा है। चन्द्रमा की बढ़ती और घटती हुई कलाएं काल के परिज्ञान में स्पष्ट सहायक हैं। तथा यह चन्द्रमा कलाओं की क्षय तथा वृद्धि द्वारा नवीन नवीन रूप धारण करता हुआ मानो प्रतिमास पुनः पुनः पैदा होता है। पति सूर्य स्थानापन्न है और पत्नी चन्द्र स्थानापन्न। कारण यह है कि सूर्य शक्ति देता है और चन्द्रमा शक्ति लेता है। इसी प्रकार पति शक्ति प्रदान करता है और पत्नी शक्ति ग्रहण करती है। पति और पत्नी ब्रह्मचर्याश्रमरूपी पूर्वसमुद्र से गृहस्थाश्रमरूपी अपर समुद्र में आते हैं, और प्रज्ञा, अर्थात् निज बुद्धिमत्ता से गृहस्थाश्रम में विचरते हैं। प्रज्ञा और बुद्धिमत्ता के बिना ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में विचरना दुष्कर है। प्रज्ञावान् ही निज प्रज्ञा-नौका के द्वारा सफलतापूर्वक इन आश्रमसमुद्रों से पार हो सकता है। मन्त्र में ब्रह्मचर्याश्रम से गृहस्थाश्रम जाने का विधान पति-पत्नी के लिए किया है। यही विधि अगले आश्रमों के सम्बन्धों में भी जाननी चाहिये। गृहस्थाश्रम में आकर, शिशू रूप से परस्पर हंसते-खेलते और आनन्दित तथा प्रसन्न होते हुए, पति और पत्नी को गृहस्थ जीवन बिताना चाहिये। गृहस्थ में तरह तरह के कष्टों और आपत्तियों का सामना करना पड़ता है। हंसी-खेल की तबियत वाले पति-पत्नी ही इन कष्टों तथा आपत्तियों का मुकाबिला बहादुरी के साथ कर पाते हैं। पति का गृहस्थ जीवन में सामान्य निरीक्षण होना चाहिये। पत्नी ऋतुओं अर्थात् ऋतुधर्मों को प्रकट करती हुई, ऋतुमती होती हुई, पुत्रों तथा पुत्रियों के रूप में नवीन नवीन रूपों में प्रकट होती रहती है। सन्तानों का निर्माण माता ही करती है। १० मास माता के पेट में रह कर बच्चा माता के संस्कारों से ही प्रभावित होता रहता है। जन्म के पश्चात् भी बाल्यावस्था में माता का ही प्रभाव बच्चों पर अधिकतर होता है, मानो माता ही पुत्रों तथा पुत्रियों के रूप में समय पर प्रकट होती रहती है। "आत्मा वै पुत्रनामासि”।] [१. "परि अर्णवम्" प्रयोग में "परित्रिगर्त वृष्टो देवः" के सदृश वर्जनार्थक परि के योग में द्वितीया विभक्ति है। यद्यपि वर्जनार्थक "परि" के योग में पञ्चमी विभक्ति भी होती है।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    सूर्य चन्द्र और आत्मा, परमात्मा पक्ष में पूर्व अथर्व० ७। ८१। १॥ और १३। २। ११॥ में कह आये हैं। यहां पतिपत्नि के सम्बन्ध में कहते हैं। (एतौ) ये दोनों (शिशू) एकत्र शयन करने हारे पति पत्नी (पूर्वापरम्) एक दूसरे के आगे और पीछे, पतिपत्नीभाव से (मायया) माया, परम्पर के प्रेम लीला से (चरतः) विचरण करते हैं और (क्रीड़न्तौ) नाना प्रकार से क्रीड़ा विहार करते हुए (अर्णवम्) संसार-सागर के पार (परि यातः) जाते हैं। उन दोनों में (अन्यः) एक (विश्वा भुवना) समस्त लोकों को (विचष्ट) विविध रूप से देखता है। और (अन्यः) दूसरा चन्द्रमा के समान स्त्री (ऋतून् विदधत्) ऋतुओं, ऋतु कालों को धारण करती हुई (नवः) सदा नवीन शरीर वाली, सुन्दर रूप (जायसे) होजाती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    These two, husband and wife, like sun and moon, move on in complementary order by their own power and virtue, playing happily like innocent children across the serious depths of Grhastha, duties and responsibilities of family life. Of these, one watches around, enlightens all areas of life around the home, and the other rises again and again ever new in love and beauty like the moon in the bright fortnight, according to the time and season, thereby setting the time and seasons of the family in order.

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    Subject

    Somarkau

    Translation

    Moving one after the other by invisible force, these two playful children go up to the ocean. One of them oversees all the beings. You, the other one, are born anew making the seasons. (Rg. X.85.18; Variation)

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    Translation

    These two Shishu, the sun and the moon playing their parts move eastward and westward with their power and reach over sea. One of both (the sun) illuminates all the worlds and another one (the moon) changing seasons rises new by change of its phase.)

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    Translation

    Moving by magic power from east to westward, these two (Sun and Moon) revolve in the atmosphere sporting like two children. The one illumines all parts of the world. Thou, the other, art born anew, duly arranging seasons.

    Footnote

    See 10-85-18. See Atharva, 7-81-1, and 13-2-11. Just as the Sun and Moon do good to humanity observing the rule of God, so should husband-and--wife-together serve man¬ kind.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−अयं मन्त्रोव्याख्यातः-अ० ७।८१।१ ॥

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