अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
ऋषिः - चन्द्रमा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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नवो॑नवो भवसि॒जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒ष्यग्र॑म्। भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ विद॑धास्या॒यन्प्र च॑न्द्रमस्तिरसे दी॒र्घमायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ऽनव: । भ॒व॒सि॒ । जाय॑मान:। अह्ना॑म् । के॒तु:। । उ॒षसा॑म् । ए॒षि॒ । अग्र॑म् । भा॒गम् । दे॒वेभ्य॑: । वि । द॒धा॒सि॒ । आ॒ऽयन् । प्र । च॒न्द्र॒म॒: । ति॒र॒से॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: ॥१.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
नवोनवो भवसिजायमानोऽह्नां केतुरुषसामेष्यग्रम्। भागं देवेभ्यो विदधास्यायन्प्र चन्द्रमस्तिरसे दीर्घमायुः ॥
स्वर रहित पद पाठनवऽनव: । भवसि । जायमान:। अह्नाम् । केतु:। । उषसाम् । एषि । अग्रम् । भागम् । देवेभ्य: । वि । दधासि । आऽयन् । प्र । चन्द्रम: । तिरसे । दीर्घम् । आयु: ॥१.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(चन्द्रमः) हेचन्द्रमा ! तू [शुक्ल पक्ष में] (नवोनवः) नया-नया (जायमानः) प्रकट होता हुआ (भवसि) रहता है, और (अह्नाम्) दिनों का (केतुः) जतानेवाला तू (उषसाम्) उषाओं [प्रभात वेलाओं] के (अग्रम्) आगे (एषि) चलता है और (आयन्) आता हुआ तू (देवेभ्यः)उत्तम पदार्थों को (भागम्) सेवनीय उत्तम गुण (वि दधासि) विविध प्रकार देता है और (दीर्घम्) लम्बे (आयुः) जीवनकाल को (प्र) अच्छे प्रकार (तिरसे) पार लगाता है॥२४॥
भावार्थ
चन्द्रमा शुक्लपक्षमें एक-एक कला बढ़कर नया-नया होता है, और दिनों अर्थात् प्रतिपदा आदि चान्द्रतिथियों को बनाता, और पृथिवी के पदार्थों में पुष्टि देकर प्राणियों का जीवनबढ़ाता है, इसी प्रकार स्त्री-पुरुष संसार में उपकार करके अपना जीवन सुफल करें॥२४॥
टिप्पणी
२४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।८१।२ ॥
विषय
पति
पदार्थ
१. मानव-स्वभाव कुछ इस प्रकार का है कि वह एक वस्तु से कुछ देर पश्चात् ऊब जाता है। 'गृहस्थ में पति-पत्नी परस्पर ऊब न जाएँ, इस दृष्टिकोण से (जायमान:) = अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ तू [पति] (नव: नवः भवसि) = सदा नवीन बना रहता है। तेरा जीवन पुराना-सा [जीर्ण-सा] नहीं हो जाता। (अह्नां केतुः) = दिनों का तू प्रकाशक होता है दिनों को तू प्रकाशमय बनाता है। स्वाध्याय के द्वारा अधिकाधिक प्रकाशमय जीवनबाला होता है। (उषसां अग्नम् एषि) = उषाओं के अग्रभाग में आता है, अर्थात् बहुत सवेरे ही प्रबुद्ध होकर क्रियामय जीवनवाला होकर चलता है। २. तू (आयन्) = गतिशील होता हुआ (देवेभ्यः भागं विदधासि) = देवों के लिए भाग को विशेषरूप से धारण करता है, अर्थात् यज्ञशील बनता है। यज्ञों को करके यज्ञशेष का ही सेवन करता है। इसप्रकार हे (चन्द्रमः) = आहादमय जीवनवाले पते! तू (दीर्घं आयुः प्रतिरसे) = दीर्घ जीवन को अत्यन्त विस्तृत करता है। मन की प्रसन्नता तेरे दीर्घ जीवन का कारण बनती है।
भावार्थ
पति अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ सदा स्तुत्य [नव] जीवनवाला हो। दिन को ज्ञान के प्रकाश से उज्ज्वल बनाए, प्रात: जागरित होकर कार्यप्रवृत्त हो, यज्ञशील बने तथा प्रसन्न मनोवृत्तिवाला होता हुआ दीर्घ जीवन प्रास करे।
भाषार्थ
(चन्द्रमः) हे चन्द्र समान शीतल स्वभाव वाली पत्नि ! तू (नवः नवः) नवीन नवीन रूपों में (जायमानः) प्रकट (भवसि) होती रहती है, (अह्नाम्) दिनों का तू (केतुः) झण्डा है, (उषसाम्) उषा कालों के (अग्रम्) आगे-आगे अर्थात् उन से पहिले (एषि) तू आती है। (आयन्) आती हुई तू (देवेभ्यः) देवों के लिए (भागम्) भाग का (विदधासि) विधान करती है, (चन्द्रमः) हे चन्द्र सदृश पत्नि ! तू (आयुः) आयु (दीर्घम्) लम्बी (प्र तिरसे) बढ़ाती है, या करती है।
टिप्पणी
[व्याख्या - मन्त्र में चन्द्रमा की दृष्टि से जायमानः, आयन में पुंल्लिंगता है। चन्द्रमा के पक्ष में चन्द्रमा प्रति अमावस्या के पश्चात् मानो जन्म लेकर नए नए रूपों में प्रकट होता रहता है। वह दिनों अर्थात् तिथियों का केतु अर्थात् ज्ञापक है। [केतुः प्रज्ञानाम (निघं० ३।९); केतुम्=प्रज्ञानाम (निरु० १२।१।७)], कृष्णपक्ष के अन्तिम दिनों से चन्द्रमा पूर्व में उषा के आगे आगे चलता है। अमावस्या तथा पूर्णिमा के यज्ञों में, वायु आदि देवों को मानों यज्ञ का भाग प्रदान करता है, और आयु बढ़ाता है। चन्द्रमा के कारण समुद्रों में ज्वार-भाटा होते, ओषधियों में रससंचार होता, तथा प्राणिशरीरों में रक्त संचार बढ़ता है,—इस कारण चन्द्रमा आयु को बढ़ाता है। विवाहसूक्त में चन्द्रमा का वर्णन निरर्थक है यदि चन्द्र के दृष्टान्त द्वारा चन्द्रसमशीतल स्वभाव वाली सूर्या का वर्णन मन्त्र में अभिप्रेत न हो। इसी भावना की दृष्टि से मन्त्र २३ में सूर्य-चन्द्र के दृष्टान्त द्वारा पति-पत्नी का वर्णन किया गया है। मन्त्र में पत्नी के निम्नलिखित गुणों का वर्णन हुआ है। (१) पत्नी चन्द्र के सदृश नवीन-नवीन रूपों में प्रकट होती रहती है। भिन्न भिन्न गुणों, आकृतियों वाली सन्तानें माता के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। माता ही मानों इन भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट हो रही होती है। यथा "आत्मा वै पुत्र नामासि सं जीव शरदः शतम्" (शत० ब्रा० १४।९।८।२६)। (२) पत्नी दिन का मानो झण्डा है। राजा के महल पर झण्डा यदि लगा है तो ज्ञात होता है कि महल में राजा की उपस्थिति है। दिन के चढ़ते नई आशाओं और उमङ्गों का उदय होता है जिनकी सफलता में पत्नी सहायक होती है। इस झण्डे के अभाव में गृहजीवन सूना है। (३) पत्नी को उषा काल से पूर्व ही जाग कर गृहकार्यों में व्यापृत हो जाना चाहिये। (४) पत्नी के होते ही देवों अर्थात् मातृदेव, पितृदेव, तथा अतिथि देव को उन उन का नियत खाद्य आदि का भाग मिल सकता है। पञ्चमहायज्ञों का विधान, जिन द्वारा कि अतिथि आदि देवों का सत्कार किया जाता है, पत्नीरहित पुरुष के लिए सम्भव नहीं। इसलिये पत्नीरूपी चन्द्र का गृह के नभोमण्डल में प्रवेश आवश्यक माना गया है। (५) गृहस्थ में पत्नी यदि प्रेममयी हो तो वह पति की आयु के बढ़ाने में सहायक होती है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ! तू (अह्नाम्) दिनों का (केतुः) प्रज्ञापक, ज्ञाता होकर (जायमानः) पुत्र रूप से उत्पन्न होता हुआ (उषसाम् अग्रम्) उपायों के प्रारम्भ में सूर्य के समान (नवः नवः भवसि) नये नये रूप में प्रकट होता है। और तू हे गृहस्थ ! नित्य (देवेभ्यः) विद्वानों अतिथि आदि देव के समान पूज्य पुरुषों के लिये (भागं) अन्न यादि सेवन योग्य पदार्थ (विदधासि) विविध प्रकार से प्रदान करता है और (आयन्) सबको प्राप्त होकर हे (चन्द्रमः) चन्द्र के समान आह्लादकारिन् व पत्नि ! तू सबको (दीर्घाम् आयुः) दीर्घ जीवन (प्रतिरसे) प्रदान करती है। पतिर्जायां प्रविशति गर्भो भूत्वा स मातरम्। तस्यां पुनर्भवो भूत्वा दशमे मासि जायते। तज्जाया जाया भवति यदस्यां जायते पुनः। ऐ० ७। १३ ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O lady of the house, like the new moon you rise anew brighter every day in love, beauty, conjugal and familial joy, the banner of every new day, pioneer of the dawns every morning. O new moon of the home, you organise and dispense the rightful share of all Devas, divinities of nature and nobilities of humanity, through yajnic hospitality and fulfil the needs and obligations of a long and happy family life.
Subject
Candramah
Translation
Born afresh you are ever-new. A pennant of days, you go before dawns. You allot to the bounties of Nature their share as you-come. You prolong our life-span, O delightful moon. (Rv. X.85.19 Variation)
Translation
Being born afresh this moon becomes new and new ever. This is the sign of day and this goes before dawns. The portion of oblation of oblation offered in the fire of Yajna is given by moon to all the Devas of Yajna when it rises. This moon gives long life to all.
Translation
Thou, born afresh, art new and new forever: ensign of days, before the Dawns thou goest. Coming, thou supplies! nourishment to vegetables, crops and trees. Thou lengthenest, Moon, the days of our existence.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।८१।२ ॥
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