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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    प्र त्वा॑मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेवाः॑। ऋ॒तस्य॒ योनौ॑सुकृ॒तस्य॑ लो॒के स्यो॒नं ते॑ अस्तु स॒हसं॑भलायै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । त्वा॒ । मु॒ञ्चा॒मि॒ । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । येन॑ । त्वा॒ । अब॑ध्नात् । स॒वि॒ता । सु॒ऽशेवा॑: । ऋ॒तस्य॑ । योनौ॑ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒के । स्यो॒नम् । ते॒ । अ॒स्तु॒ । स॒हऽसं॑भलायै ॥१.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र त्वामुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेवाः। ऋतस्य योनौसुकृतस्य लोके स्योनं ते अस्तु सहसंभलायै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । त्वा । मुञ्चामि । वरुणस्य । पाशात् । येन । त्वा । अबध्नात् । सविता । सुऽशेवा: । ऋतस्य । योनौ । सुऽकृतस्य । लोके । स्योनम् । ते । अस्तु । सहऽसंभलायै ॥१.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वधू !] (त्वा)तुझे (वरुणस्य) रुकावट के (पाशात्) बन्धन से (प्र मुञ्चामि) मैं [वर] अच्छेप्रकार छुड़ाता हूँ, (येन) जिसके साथ (त्वा) तुझे (सुशेवाः) अत्यन्त सेवायोग्य (सविता) जन्मदाता पिता ने (अबध्नात्) बाँधा है। (ऋतस्य) सत्य नियम के (योनौ) घरमें और (सुकृतस्य) सुकृत [पुण्य कर्म] के (लोके) समाज में (सहसम्भलायै) सहेलियोंसहित वर्तमान (ते) तेरे लिये (स्योनम्) आनन्द (अस्तु) होवे ॥१९॥

    भावार्थ

    जिस कन्या को पिता नेयोग्य पति मिलने तक रोका था, उस को पिता के घर से प्रसन्नता के साथ लेकर वरबड़े प्रेम से रक्खे और घर के सब धर्मात्मा विद्वान् स्त्री-पुरुष श्रेष्ठव्यवहार करके उसे सुख देते रहें ॥१९॥मन्त्र १८ की टिप्पणी देखो ॥

    टिप्पणी

    १९−(प्र)प्रकर्षेण (त्वा) वधूम् (मुञ्चामि) मोचयामि (वरुणस्य) वृञ् संवरणे-उनन्। आवरणस्यविघ्नस्य (पाशात्) बन्धात् (येन) (त्वा) (अबध्नात्) बन्धे कृतवान् (सविता)जन्मदाता पिता (सुशेवाः) अ० २।२।२। सु+शेवृ सेवने-असुन्। सुष्ठु सेवनीयः (ऋतस्य)सत्यनियमस्य (योनौ) गृहे (सुकृतस्य) पुण्यकर्मणः (लोके) समाजे (स्योनम्) सुखम् (ते) तुभ्यम् (अस्तु) (सहसम्भलायै) सह+सम्+भल परिभाषणहिंसादानेषु-अच्, टाप्।सम्भलाभिः सम्भाषिकाभिः सखिभिः सह वर्तमानायै ॥

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    विषय

    वर की वधू के विषय में आकांक्षा

    पदार्थ

    १. वर वधू से कहता है कि (त्वा) = तुझे (वरुणस्य पाशात्) = वरुण के बन्धन से (प्रमुग्वामि) = छुड़ाता हूँ। पिता वरुण पाशी है। पिता भी सन्तानों को नियमपाश में बाँधकर रखता है। सन्तान को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह आवश्यक ही है। इस वरुण के पाश से वर ही उसे छडाता है। उस पाश से मैं तुझे छुड़ाता हूँ, (येन) = जिससे (सुशेवा:) = उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाले (सविता) = जन्मदाता, प्रेरक पिता ने (त्वा अबघ्नात्) = तुझे बाँधा हुआ था। पिता का यह कर्तव्य ही है कि वह सन्तानों को नियमपाश में बाँधकर चले। कन्याओं को सुरक्षित रखना अत्यन्त आवश्यक ही होता है। २. (ऋतस्य योनौ) = जिस घर में सब वस्तुएँ ऋतपूर्वक होती हैं, अर्थात् ठीक समय पर होती हैं, उस (सुकृतस्य लोके) = पुण्यलोक में, अर्थात् जहाँ सब कार्य शुभ ही होते हैं, उस घर में (सहसम् भलायै) = [भल परिभाषणे] सबके साथ मधुरता से भाषण करनेवाली (ते) = तेरे लिए (स्योनं अस्तु) = सुख-ही-सुख हो।

    भावार्थ

    वर को इस बात की प्रसन्नता है कि उसकी भाविनी पत्नी को पिता ने नियमों के बन्धनों में बाँधकर रक्खा था। अब वह पतिगृह में भी सब कार्यों को समय पर करनेवाली होगी, घर में शुभ ही कार्य होंगे और वह सबके साथ मधुरता से बोलनेवाली होगी।

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    भाषार्थ

    (वरुणस्य) वरण करने योग्य श्रेष्ठ परमेश्वर सम्बन्धी (पाशात्) प्रेम-बन्धन से (त्वा) हे वधु ! तुझे (प्र मुञ्चामि) मैं छुड़ाता हूं, (येन) जिस प्रेम-बन्धन द्वारा (सुशेवाः) उत्तम सुखदाता (सविता) जन्मदाता पिता ने (त्वा) तुझे (अबध्नात्) बांधा हुआ था। (ऋतस्य) सत्य नियमों के (योनौ) मेरे गृह में, तथा (सुकृतस्य) सुकर्मियों के (लोके) समाज में, (सहसम्भलायै, ते) सम्यग्भाषी पति के साथ वर्तमान तेरे लिए (स्योनम्) सदा सुख (अस्तु) हो।

    टिप्पणी

    [सुशेवाः=सु + शेवम् सुखनाम (निघं० ३।६)। योनिः गृहनाम (निघं० ३।४) संभल=सम् (सम्यक्) + भल (परिभाषणे), अर्थात् सम्यग्भाषी, प्रेमपूर्वक भाषण करनेवाला पति (मन्त्र ३१)। स्योनम् सुखनाम (निघं० ३।६)। सहसंभलायै= संभलेन सह वर्तते इति सहसंभला, तस्यै] [व्याख्या–वरुण अर्थात् संसार के सम्राट् परमेश्वर के पाश, संसार को बांधे हुए हैं। माता-पिता और सन्तानों का, पति और पत्नी का पारस्परिक प्रेमबन्धन भी एक पाश है जिस की कि रचना प्रभु ने सृष्टि में की हुई है। इस प्रेमपाश की सत्ता पशुओं, पक्षियों तथा कीट-पतङ्गों में भी दृष्टिगोचर हो रही है, जिस से प्राणिसृष्टि का सर्जन हो रहा है। वर कहता है कि हे वधु ! अभी तक तो इस प्रेमपाश द्वारा तेरे सुखद माता-पिता ने तुझे बांधा हुआ था, परन्तु अव से मैं तुझे अपने प्रेमपाश द्वारा बांधता हूं। इस प्रकार वर अपने हार्दिक प्रेम का विश्वास वधू को दिलाता है। साथ ही वर कहता है कि इस नए घर में सत्य का राज्य है। इस घर में तू सदा सुखपूर्वक रहेगी, और मैं सदा सम्यग्भाषी हो कर तुझे सुखदायी होऊंगा।

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे कन्ये ! (त्वा) तुझको मैं पति, (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ, तेरे रक्षक परमेश्वर या वरुण प्रजापति पिता के (पाशात्) उस बन्धन से (प्र मुञ्चामि) छुड़ाता हूं (येन) जिस बन्धन से (त्वा) तुझे (सुशेवा) उत्तम रीति से सेवा करने योग्य (सविता) तेरे पिता ने (अबध्नात्) बांधा था। हे कन्ये ! (ऋतस्य योनौ) परम सत्य ज्ञान और यज्ञ के स्थान और (सुकृतस्य) पुण्य और सत्याचरण के (लोके) लोक, गृहस्थाश्रम में (सहसंभलायै*) पति के साथ सदा सुमधुर भाषण करने वाली, मञ्जुभाषिणी या संभल सहित (ते) तुझको (स्योनम्) सुख (अस्तु) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ' सुशेवः' इति ऋ०। (च०) ' अरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि ' इति ऋ०। * भल, भल्ल, परिभाषणहिंसादानेषु (भ्वादिः)। इमाम् विष्यामि वरुणस्य पाशं यमबध्नात् सविता सुकेतः। धातुश्च योनौ सुकृतस्य लोके स्योनं मे सह पत्या करोमि। इति तै० सं०। (च०) ‘सहपत्नी वधू’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    I release you from the bonds of Varuna, discipline of virginity observed in the spirit of freedom, justice and responsibility in the parental home, where Savita, lord giver of life and natural growth to maturity, had bound you in dedication without inhibition, and I settle and establish you with your husband in a new life of natural conjugal order of truth and piety in the world of noble action where, I wish and pray, you may be happy with your husband and your new friends and companions.

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    Translation

    I release you completely from the venerable Lord’s (Varuna) fetters, with which the propitious creator Lord had bound you. In the abode of the right and in the world of good deeds, may there be bliss for you along with your wooer. (Rg. X.85.24; Variation)

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    Translation

    O bride, I free you from the restriction of the law, the life of celibacy by which your good father hitherto bound you. May, in this house hold life which is the life of truth and right good actions, visit all happiness to you together with your husband.

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    Translation

    Now I free thee from the restrictions of thy parents, wherewith thy blessed father hath bound thee. Talking sweetly with thy husband, may thou enjoy bliss in the house of thy noble, learned husband, and in his family of virtuous people.

    Footnote

    See Rig, 10-85-24. ‘I’ refers to husband.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(प्र)प्रकर्षेण (त्वा) वधूम् (मुञ्चामि) मोचयामि (वरुणस्य) वृञ् संवरणे-उनन्। आवरणस्यविघ्नस्य (पाशात्) बन्धात् (येन) (त्वा) (अबध्नात्) बन्धे कृतवान् (सविता)जन्मदाता पिता (सुशेवाः) अ० २।२।२। सु+शेवृ सेवने-असुन्। सुष्ठु सेवनीयः (ऋतस्य)सत्यनियमस्य (योनौ) गृहे (सुकृतस्य) पुण्यकर्मणः (लोके) समाजे (स्योनम्) सुखम् (ते) तुभ्यम् (अस्तु) (सहसम्भलायै) सह+सम्+भल परिभाषणहिंसादानेषु-अच्, टाप्।सम्भलाभिः सम्भाषिकाभिः सखिभिः सह वर्तमानायै ॥

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