अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 58
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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प्र त्वा॑मुञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॒द्येन॒ त्वाब॑ध्नात्सवि॒ता सु॒शेवाः॑। उ॒रुं लो॒कंसु॒गमत्र॒ पन्थां॑ कृणोमि॒ तुभ्यं॑ स॒हप॑त्न्यै वधु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । त्वा॒ ॒। मु॒ञ्चा॒मि॒ । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । येन॑ । त्वा॒ । अब॑ध्नात् । स॒वि॒ता॒ । सु॒ऽशेवा॑: । उ॒रुम् । लो॒कम् । सु॒गऽगम् । अत्र॑ । पन्था॑म् । कृ॒णोमि॑ । तुभ्य॑म् । स॒हऽप॑त्न्यै । व॒धु॒ ॥१.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र त्वामुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेवाः। उरुं लोकंसुगमत्र पन्थां कृणोमि तुभ्यं सहपत्न्यै वधु ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । त्वा । मुञ्चामि । वरुणस्य । पाशात् । येन । त्वा । अबध्नात् । सविता । सुऽशेवा: । उरुम् । लोकम् । सुगऽगम् । अत्र । पन्थाम् । कृणोमि । तुभ्यम् । सहऽपत्न्यै । वधु ॥१.५८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] (त्वा)तुझे (वरुणस्य) रुकावट [विघ्न] के (पाशात्) बन्धन से (प्र मुञ्चामि) मैं [वर]अच्छे प्रकार छुड़ाता हूँ, (येन) जिसके साथ (त्वा) तुझे (सुशेवाः) अत्यन्त सेवायोग्य (सविता) जन्मदाता पिता ने (अबध्नात्) बाँधा है। (वधु) हे वधू ! (सहपत्न्यै) पति के साथ वर्तमान (तुभ्यम्) तेरे लिये (अत्र) यहाँ[गृहाश्रम में] (उरुम्) चौड़ा (लोकम्) घर और (सुगम्) सुगम (पन्थाम्) मार्ग (कृणोमि) मैं [पति]बनाता हूँ ॥५८॥
भावार्थ
जिस कन्या को पिता नेयोग्य पति के मिलने तक रोका था, वह कन्या योग्य पति के साथ सुखपूर्वक सुप्रबन्धकरके गृहाश्रम का कर्तव्य करे और उसी प्रकार पति भी पुरुषार्थ करके पत्नी के साथप्रीति से रहे ॥५८॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऊपर मन्त्र १९ में आ चुका है॥५८॥
टिप्पणी
५८−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-म० १९ (उरुम्) विस्तृतम् (लोकम्) गृहम् (सुगम्)सुखेन गन्तव्यम् (अत्र) अस्मिन् गृहाश्रमे (पन्थाम्) पन्थानम् (कृणोमि) करोमि (तुभ्यम्) (सहपत्न्यै) पत्या सह वर्तमानायै (वधु) हे पत्नि ॥
विषय
उरु लोकं, सुगं पन्थाम्
पदार्थ
१. (त्वा) = तुझे (वरुणस्य पाशात्) = श्रेष्ठ प्रभु के उस पाश से (प्रमुञ्चामि) = छुड़ाता हूँ, (येन) = जिस पाश से (त्वा) = तुझे (सुशेवा:) = उत्तम कल्याण करनेवाले (सविता) = इस आनन्ददाता पिता ने (अबध्नात) = बाँधा हुआ था। पुत्री के प्रति पिता का प्रेम ऐसा होता है कि उसको तोड़ लेना सरल नहीं। प्रभु ने इस प्रेम-बन्धन को पैदा किया है। यौवनावस्था तक पिता इस प्रेम के कारण ही उसे पालित व पोषित करता है। २. अब यह उसका भावी पति उसे इस बन्धन से छुड़ाकर कहता है कि हे (वधु) = गृहस्थ के बोझ का वहन करनेवाली पत्नि! (अत्र) = यहाँ गृहस्थाश्रम में (सहत्न्यै पति) = के साथ मिलकर गृहस्थभार का वहन करनेवाली (तुभ्यम्) = तेरे लिए (उरुं लोकम) = विशाल लोक को, प्रकाश को तथा (सुगं पन्था कृणोमि) = सुगमता से चलने योग्य मार्ग बनाता हूँ। मैं प्रयत्न करता हूँ कि तुझे समस्याओं का अन्धकार यहाँ न घर ले और तुझे मार्ग पर बढ़ने पर कठिनता न हो।
भावार्थ
'पति' पत्नी को उसके पित्गृह से पृथक् करता हुआ प्रभु से उत्पादित पितृप्रेम के बन्धन से छुड़ाता है और प्रयत्न करता है कि पतिगृह में उसके सामने समस्याओं का अन्धकार न हो और उसे जीवन-मार्ग में आगे बढ़ने में कठिनता न हो।
भाषार्थ
(वधु) हे वधु ! (वरुणस्य) श्रेष्ठ परमेश्वर के (पाशात्) उस प्रेम पाश से (त्वा) तुझे (प्र मुञ्चामि) मैं वर प्रमुक्त करता हूं, छुड़ाता हूं, (येन) जिस-पाश द्वारा (सुशेवाः) उत्तम-सुखदायक (सविता) जन्मदाता तेरे पिता ने (त्वा) तुझे (अबघ्नात्) अपने साथ बांधा था। हे वधु ! (सहपत्न्यै) पति के साथ रहने वाली (तुभ्यम्) तेरे लिए (उरुम्) विस्तृत (लोकम्) तथा दर्शनीय अपने घर को और (अत्र) इस घर में (पन्थाम्) आने-जाने के मार्ग को (सुगम, कृणोमि) मैं पति सुगम अर्थात् बाधारहित करता हूं।
टिप्पणी
[सुशेवाः=सु (उत्तम) + शेवम् सुखनाम (निघं० ३।६)। लोकम्= लोक दर्शने (स्वादि)] [व्याख्या – सन्तान के साथ माता-पिता का प्रेम स्वाभाविक होता है। यह प्रेम परमेश्वर द्वारा स्वाभाविक बनाया गया है। यह प्रेम परमेश्वरीय पाश है, बन्धन है, जिस के द्वारा गृहस्थ व्यक्ति परस्पर बंधे रहते हैं। सभी माता-पिता स्वभावतः अपनी सन्तानों के साथ प्रेम करते हैं। यही कारण है कि सन्तानें भी माता-पिता के प्रेमपाश में बंधी रहती हैं। विवाह के बाद कन्या जब पतिगृह में जाती है तब उसे अपने माता-पिता का स्वाभाविक प्रेमबन्धन ढीला करना पड़ता है। इस क्षति की पूर्ति, पति द्वारा डाले नए प्रेमपाश से ही हो सकती है। पति इसलिये अपनी पत्नी से कहता है कि जिस तेरे पिता ने तुझे अपने स्वाभाविक प्रेमपाश द्वारा अपने साथ बांधा हुआ था उस से मैं तुझे छुड़ाता हूं, और अपने प्रेमपाश में तुझे बांधता हूं।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे (वधु) प्रियतमे वधु ! (त्वा) तुझको (वरुणस्य) परमात्मा या उत्पादक प्रभु के उस (पाशात्) पाश से (प्र मुञ्चामि) भली प्रकार मुक्त करूं (येन) जिससे (सुशेवाः) उत्तम सेवा करने योग्य सुखप्रदाता (सविता) उत्पादक प्रभु या पिता (त्वा अबध्नात्) तुझे पितृ ऋण रूप बंधन से बांधता है। (उरुम् लोकम्) इस विशाल लोक को और (अत्र) इस लोक में विस्तृत (पन्थाम्) जीवन-मार्ग को मैं (सहपत्न्यै) सहधर्मचारिणी (तुभ्यम्) तुझ अपनी स्वामिनी के लिये (सुगम्) सुगम, सुख से जाने योग्य (कृणोमि) करता हूं।
टिप्पणी
‘इमां दिष्यामि वरुणस्य पाशं तेन त्वा’ (तृ०) ‘सुगमित्र’ (च०) ‘सहपत्नी वधूः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O bride, I release you from the bond by which Savita, blissful lord giver of life, bound you in the father’s home. Now for you, bound in union with me, the husband, I create and prepare a free, comfortable and wide path of life.
Translation
I release you completely from the venerable Lord’s (Varuna’s) fetters, with, which the propitious creator Lord had bound-you. O bride, plenty of accommodation and an easy approach, I make for you along with your husband. (Av. XIV.1.19; Variation)
Translation
O bride, I your husband, set you free from the bond of strict discipline of continence in which your good father has bound you. I give you ample space and make your way easy to travel with me as your husband.
Translation
O bride, I free thee from the restrictions of thy parents, wherewith thy blessed father hath bound thee. I give thee here beside thy husband an extensive house and nice resources to make the journey of life successful !
Footnote
I: The husband. Here: In domestic life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५८−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-म० १९ (उरुम्) विस्तृतम् (लोकम्) गृहम् (सुगम्)सुखेन गन्तव्यम् (अत्र) अस्मिन् गृहाश्रमे (पन्थाम्) पन्थानम् (कृणोमि) करोमि (तुभ्यम्) (सहपत्न्यै) पत्या सह वर्तमानायै (वधु) हे पत्नि ॥
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