अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
0
शुची॑ ते च॒क्रेया॒त्या व्या॒नो अ॑क्ष॒ आह॑तः। अनो॑ मन॒स्मयं॑ सू॒र्यारो॑हत्प्रय॒ती पति॑म्॥
स्वर सहित पद पाठशुची॒ इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । या॒त्या: । वि॒ऽआ॒न: । अक्ष॑: । आऽह॑त: । अन॑: । म॒न॒स्मय॑म् । सू॒र्या । आ । अ॒रो॒ह॒त् । प्र॒ऽय॒ती । पति॑म् ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
शुची ते चक्रेयात्या व्यानो अक्ष आहतः। अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्॥
स्वर रहित पद पाठशुची इति । ते । चक्रे इति । यात्या: । विऽआन: । अक्ष: । आऽहत: । अन: । मनस्मयम् । सूर्या । आ । अरोहत् । प्रऽयती । पतिम् ॥१.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(यात्याः ते) तुझ चलतीहुई के (शुची) दो शुद्ध [कान, मन्त्र ११] (चक्रे) दो पहिये [समान हों] और (व्यानः) व्यान [सर्वशरीरव्यापक वायु] (अक्षः) धुरा [समान] (आहतः) [पहियों में]लगा हो। (पतिम्) पति के पास को (प्रयती) चलती हुई (सूर्याः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (मनस्मयम्) मनोमय [विचाररूप] (अनः) रथपर (आ अरोहत्) चढ़े ॥१२॥
भावार्थ
जब कन्या श्रवण मननद्वारा व्यान वायु अर्थात् इन्द्रियों को दमन कर सके, तब पति के समीप रहकरगृहाश्रम की गाड़ी को चलावे ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(शुची) पवित्रे श्रोत्रे (ते) तव (चक्रे)रथाङ्गे यथा (यात्याः) यान्त्याः। गच्छन्त्याः (व्यानः) सर्वशरीरव्यापकोवायुर्यथा। इन्द्रियसमूह इत्यर्थः (अक्षः) चक्रधारणकाष्ठभेदः। धुरा (आहतः)संयोजितः (अनः) रथम् (मनस्मयम्) मनोमयम्। मननेन सिद्धम् (सूर्या) प्रेरयित्री।सूर्यवत् तेजस्विनी कन्या (आ अरोहत्) आरोहेत् (प्रयती) प्रयाणं कुर्वती (पतिम्)भर्तारम् ॥
विषय
'प्राण, अपान, व्यान' की ठीक स्थिति
पदार्थ
१. पति प्रयती पतिगृह की ओर जाती हुई (सूर्या) = सूर्या (मनस्मयं अन:) = मन के बने रथ पर (आरोहत्) = आरूढ़ हुई, अर्थात् मन में उत्साह व प्रेम से परिपूर्ण होकर पतिगृह को हृदय से चाहती हुई चली। २. उस समय (यात्या:) = जाती हुई सूर्या के रथ के (ते चक्रे) = वे चक्र शुषी-पवित्र प्राणापान ही थे और उन प्राणापानरूप चक्रों में (व्यान: अक्षः आहत:) = व्यान अक्ष के रूप में लगा हुआ था [प्राणापाणे पवित्रे-तै०३.२.४.४]। प्राणापान ही शुची व पवित्र हैं। ये यदि रथ के पहिये हैं तो व्यान उनका अक्ष है। भूः' इति प्राणा:, भुवः' इति अपानाः, 'स्वः', इति व्यान:-इन ब्राह्मणग्रन्थों के शब्दों में 'भूः, भुवः, स्वः' ही प्राणापान व व्यान हैं। अध्यात्म में 'भूः' शरीर है, "भुवः' हृदयान्तरिक्ष है, 'स्व:' मस्तिष्करूप घुलोक है। सूर्या के ये तीनों ही लोक बड़े ठीक हैं। इनको ठीक बनाकर वह मनोमय रथ पर आरूढ़ हुई है। ये रथ ही उसे पतिगृह की ओर ले जा रहा है।
भावार्थ
सूर्या के 'प्राण, अपान, व्यान' ठीक कार्य करनेवाले हैं, अतएव वह पूर्ण स्वस्थ व उल्लासमय मनवाली है। प्रसन्नता से पतिगृह की ओर चली है।
भाषार्थ
हे सूर्या ब्रह्मचारिणि ! (यात्याः) पतिगृह की ओर जाती हुई के (ते) तेरे (चक्रे) मनरूपी रथ के दो पहिये अर्थात् प्राण और अपान वायु (शुची) तुझे पवित्र करने वाले थे और उन में (व्यानः) व्यान वायु (अक्षः) धुरी रूप में (आहतः) लगी हुई थी। (पतिम्) पति की ओर (प्रयती) प्रयाण करती हुई (सूर्या) सूर्या ब्रह्मचारिणी (मनस्मयम्) मनोमय (अनः) रथ पर (आरोहत्) चढ़ी।
टिप्पणी
[व्याख्या- मन्त्र में दो पहियों के सम्बन्ध में नई कल्पना की गई है। ११ वें मन्त्र में दो श्रोत्रों को दो पहिये कहा है। मन्त्र १२ वें में व्यान वायु के वर्णन के कारण, तत्सम्बन्धी प्राण-और-अपान को "शुचि" कहा है। शुचि का अर्थ है पवित्र करने वाले। प्राण-और-अपान शरीर और मन को पवित्र करते हैं, इसलिये वैदिक साहित्य में इन्हें "पवित्रे" कहा है। यथा "प्राणापानौ पवित्रे" (ते० ब्रा० ३।३।४।४; तथा ३।३।६।७)। प्राण फेफड़ों में प्रविष्ट होकर रक्त को शुद्ध करता और अशुद्ध वायु को शरीर से बाहर निकालता है, तथा अपान मल-मूत्र को निकाल कर शरीर की शुद्धि करता है। सूर्या ब्रह्मचारिणी गुरुकुल के शुद्ध वायु में रह कर, तथा शुद्ध वायु में प्राणायाम द्वारा अपने शरीर और मन को पवित्र किये हुए है। प्राण-और-अपान को मनोमय रथ के दो पहिये कहा है, क्योंकि मन की गति प्राण-और-अपान पर निर्भर है। प्राण-और-अपान रूपी दो पहियों को परस्पर सम्बद्ध रखने के लिये इन में व्यान की धुरी लगी हुई है। व्यान के सम्बन्ध में वाचस्पत्य कोष में कहा है कि "देहस्थे सर्वशरीरव्यापके प्राणादिमध्ये वायुभेदे। व्यानो विष्वक् अननवाम् वायुः", अर्थात् सब शरीर में व्याप्त होकर शरीर के अङ्ग-अङ्ग में प्राणशक्ति का संचार करने वाला व्यान है। जो व्यान वायु समग्र शरीर को चला रही है वही प्राण और अपान रूपी पहियों में धुरी रूप होकर प्राणापान को समगति में चला रही है। व्यान की क्षमता के कारण ही प्राण और अपान परस्पर सम्बद्ध हुए दिन-रात अक्षुण्णरूप में चलते रहते हैं। अभिप्राय यह है कि ब्रह्मचारिणी के प्राणापान और व्यान जब बलिष्ठ हो जाए और प्राणापान की शुद्धि के कारण जब वह स्वस्थ हो तभी उस का विवाह होना चाहिये। तथा भौतिक अर्थ यह कि "हे सूर्या ब्रह्मचारिणी ! तू जब पति की ओर चली, तब तेरे रथ के दोनों पहिये साफ-सुथरे थे, पहियों में मजबूत धुरी लगी हुई थी, और रथ मनस्मय अर्थात् विचारपूर्वक निर्मित तथा मनोहारी था"। व्यानः = वि + अन (प्राणने), अर्थात् विशिष्ट प्राणशक्ति वाला = मजबूत।
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे कन्ये ! (ते यत्याः) तेरे अपने पति के गृह जाते हुए (चक्रे शुची) शुद्ध कान्तिमान् पूर्वोक्त दो चक्र हों और (अक्षे) अक्ष = धुरेरूप से (व्यानः) व्यान वायु जो हृदय की नाड़ियों में विविध प्रकार से गति करता है वह (आहतः) लगा हो। पती के पास जाती हुई। (सूर्या) सूर्य की उषा के (पतिम् प्रयती) अपने समान शुद्ध कान्ति से युक्त कन्या (मनःमयम्) मनोमय, संकल्प से बने मानस-रथ पर (आरोहत्) चढ़े।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Surya, the new bride, rides the chariot of the mind when she moves to the house of her groom (with her dreams of the future). When she moves, her pure ears are the wheels (on which the chariot moves because the mind moves in response to the stimulants of the senses), and the wind, psychic energy of thought, is the axis of her wheels.
Translation
As she goes to her Lord, the pair of Suci (the pure) becomes the swift-moving wheels. The wind is the fastened axle there; the bride mounts the chariot of the mind. (Rg. X.85.12)
Translation
O Surya! on the departure time your wheels are pure, the Vyana is axle piercing them. Thus Surya going to her husband mounts the chariot of her heart.
Translation
O girl, pure as thou wentest were thy ears serving as chariot wheels. Life-infusing breath was the axle piercing them! The girl advancing to her lord rode on the chariot of her heart.
Footnote
See Rig; 10-85-12. The verse inculcates that the girl should be chaste, pure, self-con¬ trolled and full of mental vigour.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(शुची) पवित्रे श्रोत्रे (ते) तव (चक्रे)रथाङ्गे यथा (यात्याः) यान्त्याः। गच्छन्त्याः (व्यानः) सर्वशरीरव्यापकोवायुर्यथा। इन्द्रियसमूह इत्यर्थः (अक्षः) चक्रधारणकाष्ठभेदः। धुरा (आहतः)संयोजितः (अनः) रथम् (मनस्मयम्) मनोमयम्। मननेन सिद्धम् (सूर्या) प्रेरयित्री।सूर्यवत् तेजस्विनी कन्या (आ अरोहत्) आरोहेत् (प्रयती) प्रयाणं कुर्वती (पतिम्)भर्तारम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal