अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 39
ऋषिः - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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आस्यै॑ब्राह्म॒णाः स्नप॑नीर्हर॒न्त्ववी॑रघ्नी॒रुद॑ज॒न्त्वापः॑। अ॑र्य॒म्णो अ॒ग्निंपर्ये॑तु पूष॒न्प्रती॑क्षन्ते॒ श्वशु॑रो दे॒वर॑श्च ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒स्यै॒ । ब्रा॒ह्म॒णा । स्नप॑नी: । ह॒र॒न्तु॒ । अवी॑रऽघ्नी: । उत् । अ॒ज॒न्तु॒ । आप॑: । अ॒र्य॒म्ण: । अ॒ग्निम् । परि॑ । ए॒तु॒ । पू॒ष॒न् । प्रति॑ । ई॒क्ष॒न्ते॒ । श्वशु॑र: । दे॒वर॑: । च॒ ॥१.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
आस्यैब्राह्मणाः स्नपनीर्हरन्त्ववीरघ्नीरुदजन्त्वापः। अर्यम्णो अग्निंपर्येतु पूषन्प्रतीक्षन्ते श्वशुरो देवरश्च ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अस्यै । ब्राह्मणा । स्नपनी: । हरन्तु । अवीरऽघ्नी: । उत् । अजन्तु । आप: । अर्यम्ण: । अग्निम् । परि । एतु । पूषन् । प्रति । ईक्षन्ते । श्वशुर: । देवर: । च ॥१.३९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(अस्यै) इस [वधू] केलिये (ब्राह्मणाः) ब्राह्मण [विद्वान् लोग] (स्नपनीः) शुद्धिकारक सामग्रियों को (आ हरन्तु) लावें, (अवीरघ्नीः) वीरों को हितकारी (आपः) प्रजाएँ (उत्) उत्तमतासे (अजन्तु) प्राप्त होवें। (पूषन्) हे पुष्टिकारक [विद्वान् !] (अर्यम्णः)श्रेष्ठों के मान करनेवाले [पति] की (अग्निम्) अग्नि की [प्रत्येक पति-पत्नी] (परि एतु) परिक्रमा करे, (श्वशुरः) ससुर [पति का पिता] (च) और (देवरः) देवर लोग [पति के छोटे-बड़े भ्राता] (प्रति ईक्षन्ते) बाट देखते हैं ॥३९॥
भावार्थ
वर के घर पहुँचकरवधू-वर विद्वानों की आज्ञानुसार शुद्ध जल आदि से स्नान करके अग्निहोत्रादि करकेयज्ञकुण्ड की परिक्रमा करें और सब कुटुम्बी लोग सन्मान से स्वागत करें ॥३९॥
टिप्पणी
३९−(अस्यै) वध्वै (ब्राह्मणाः) विद्वांसः (स्नपनीः) शोधयित्रीः सामग्रीः (आहरन्तु) प्रापयन्तु (अवीरघ्नीः) वीराणां हितकरीः (उत्) उत्तमतया (अजन्तु)गच्छन्तु प्राप्नुवन्तु (आपः) म० ३७। प्रजाः (अर्यम्णः) श्रेष्ठमानकरस्य पत्युः (अग्निम्) होमाग्निम् (पर्येतु) प्रत्येकं वधूश्च वरश्च गच्छतु (पूषन्) हे पोषकविद्वन् (प्रतीक्षन्ते) प्रतीक्षया पश्यन्ति (श्वशुरः) शावशेराप्तौ। उ० १।४४।शु+अशू आप्तौ व्याप्तौ-उरन्। शु आशु अश्यते प्राप्यते यः। दम्पत्योः पिता (देवरः) दिवेर्ऋ। उ० २।९९। दिवु क्रीडादिषु-ऋ प्रत्ययः। पत्युःकनिष्ठज्येष्ठभ्रातरः (च) ॥
विषय
युवति का स्नान व अग्नि परिक्रमा के अनन्तर पतिगृह प्रवेश
पदार्थ
१. (आस्यै) = इस युवति के लिए (ब्राह्मणा:) = ज्ञानी पुरुष (स्नपनी:) = स्नान कराने के साधनभूत जलों को (आहरन्तु) = प्राप्त कराएँ, जीवन को शुद्ध बनाने के साधनभूत ज्ञान-जलों को इसके लिए दें तथा इसे (अवीरघ्नी: अपाः उत् अजन्त) = वीर सन्तानों को न नष्ट होने देनेवाले ज्ञान-जल उत्कर्षेण प्राप्त हों। इसे उत्तम सन्तान के निर्माण के पालन के लिए आवश्यक ज्ञान भी अवश्य प्राप्त कराया जाए। २. (अर्यम्ण: अग्निं परि एतु) = [अर्यमा अरीन् यच्छति] शत्रुओं के नियन्ता प्रभु अग्नि की यह परिक्रमा करे। अग्नि जैसे व्रत पर दृढ़ है, इसीप्रकार अपने व्रतों पर दृढ रहने की प्रतिज्ञा करे। 'नाधः शिखा याति कदाचिदेव' अग्नि की ज्वाला कभी नीचे नहीं जाती, इसीप्रकार यह युवति भी ऊर्ध्वगति का व्रत ले। ऐसी 'ज्ञान-जल में स्नात', सन्तान के निर्माण व पालन के ज्ञान से युक्त, उत्कृष्ट आचरणवाली युवति की ही (पूषन्) = पोषक पति (श्वशुरः) = श्वसुर भावी पिता (च देवर:) = और पति के छोटे भाई (प्रतीक्षन्ते) = प्रतीक्षा करते हैं, ऐसी कामना करते हैं कि उनके गृह में ऐसी युवति ही आये।
भावार्थ
एक युवति में पत्नी बनने के योग्य योग्यता के लिए आवश्यक है कि वह 'ज्ञान जल स्नात' हो, सन्तान निर्माण के आनन्दों को समझती हो और उत्तम कुलीन आचरणवाली हो।
भाषार्थ
(अस्यै) इस वधू के लिए, (ब्राह्मणाः) वेदों के विद्वान् वैद्य, (स्नपनीः) स्नान के योग्य (आपः) जलों को (आहरन्तु) लाएं, (अवीरघ्नीः) और वीर पुत्रों का हनन न करने वाले जलों को (उद् अजन्तु) उत्कृष्ट बना कर लाएं। (अर्यम्णः) ईश्वर को जानने वाले पति के (अग्निम्) तेज को, वीर्य को (पर्येतु) यह वधू प्राप्त करे। (पूषन्) हे पुष्टपति! (श्वशुरः, देवरः, च) वधू के श्वशुर, देवर आदि (प्रतीक्षन्ते) इस की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
टिप्पणी
[ब्राह्मणाः=वैद्य ब्राह्मणवृत्ति के होने चाहियें, धनलोलुप नहीं। यथा “ओषधयः समवदन्त सोमेन सह राज्ञा । यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तँ राजन्पारयामसि"॥ (यजु० १२।९६), अर्थात् ओषधियों ने अपने राजा सोम के साथ संवाद में कहा कि हमें जब ब्राह्मण कोटि का निरीह व्यक्ति चिकित्सा के लिए प्रयुक्त करता है। तो हम रोगी को कष्टों से पार कर देती है। अर्यम्णः= अर्य स्वामिनं मिमीते मन्यते जानातीति अर्यसा (उणा० १।१५९, महर्षि दयानन्द)। स्नपनीः= गर्भाधान-संस्कार में गर्भाधान से पूर्व स्नान की विधि है। पारस्कर गृह्यसूत्रों में कहा है कि अथ गर्भाधानं स्त्रियः पुष्पवत्याः, चतुरहादूर्ध्व स्नात्वा विरुजायाः तस्मिन्नेव दिवा,-आदित्यं गर्भमिति"। इस की व्याख्या में महर्षि दयानन्द संस्कार विधि में लिखते हैं कि “इस के अनन्तर जब स्त्री रजस्वला हो कर चौथे दिन के उपरान्त पांचवें दिन स्नान कर रजरोग रहित हो उसी दिन “आदित्यं गर्भम्" इत्यादि मन्त्रों से आहुति देनी"। “तथा इन मन्त्रों से आहुति देते समय प्रत्येक आहुति के स्रुचा में शेष रहे घृत को वधू लेके, स्नान के घर में जा कर, उस घी का पग के नख से लेके शिर पर्यन्त सब अङ्गों पर मर्दन कर के स्नान करे" (संस्कार-विधि)] [व्याख्या— ब्राह्मण अर्थात् वेदज्ञ वैद्य, गर्भाधान के दिन, ऋतुमती होने के चौथे दिन, वधू के लिए स्नानयोग्य जल को लाएं। यह जल नानाविध औषधियों द्वारा उत्कृष्ट बना कर वधू के स्नान के निमित्त लाना चाहिये। गर्भाधान के समय तथा तत्पश्चात् भी वधू ऐसे उत्कृष्ट जलों द्वारा स्नान करती रहे। इस से गर्भ स्थापन हो जाता है। तथा गर्भस्थ बच्चे का नाश नहीं होता। इस स्नान द्वारा बच्चे पुष्ट और स्वस्थ होकर संसार में आते हैं। चरक में “गर्भस्थापनीय प्रकरण" में लिखा है कि “गर्भवती स्त्री इन्द्रायण, ब्राह्मी, सुफेद दूब, नीली दूब, पाटला, गिलोय, हरड़, नीम, खरेटा, शतमूली इन सब ओषधियों के साथ सिद्ध किये हुए दुग्ध और घृत का पान करे। तथा इन ओषधियों के साथ सिद्ध किये गए जल से स्नान करे" (चरक, शरीर स्थान, अ० ८)। स्नान के पश्चात् ईश्वरज्ञ-पति की अग्नि अर्थात् तेज को, वधू अपने गर्भाशय में धारण करे। मन्त्र में पति को अर्यमा कहा है। गर्भाधान के समय पति परमेश्वर का ध्यान करता हुआ सात्विक भावना से गर्भाधान करे, वैषयिक भावना से नहीं। गर्भाधान के समय विचारों का प्रभाव गर्भस्थ बच्चे पर अत्यधिक पड़ता है। इस समय पति को ध्यान करना चाहिये कि परमेश्वर जिस प्रकार प्रकृति में निज कामना रूपी गर्भ का धारण करता है इसी प्रकार मैं भी पत्नी में गर्भाधान करूं। पति के वीर्य को अग्नि अर्थात् तेज कहा है। अग्नि अर्थात् तेज को वीर्य भी कहते हैं। यथा “स्याद्रक्षणीयं यदि मे न तेज:" (रघुवंश १४।६५) में सीता ने कवि की उक्ति द्वारा राम के वीर्य को तेजः कहा है। तथा तेजः=Semen, Seed, Semen Virile (आप्टे)। “अर्यम्णो अग्निं पर्येतु" का यह अभिप्राय भी सम्भव है कि गर्भाधान के निमित्त गर्भाधान-संस्कार रचाकर, अर्यमा नाम वाले पति द्वारा प्रदीप्त की गई अग्नि की परिक्रमा, पत्नी करे। मन्त्र में श्वशुर और देवर आदि सम्बन्धियों द्वारा जिस प्रतीक्षा का वर्णन हुआ है वह गर्भाधान के सम्बन्ध में प्रतीत होता है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(ब्राह्मणाः) ब्रह्म, वेद के जानने हारे विद्वान् पुरुष (अस्यै) इस कन्या कों (स्त्रपनीः) नहलाने के योग्य (अपः) जलों को (आहरन्तु) लावें और वे ही (अवीरघ्नीः) वीर्य और सन्तान को नाश न करने वाली (अपः) जलों और उत्तम उपदेशों और कर्मों को (उद् अजन्तु) प्राप्त करावें। कन्या स्नानादि करके (अर्यम्णः) अर्यमा, परमेश्वर या राजा के प्रतिनिधि (अग्निम्) अग्नि की (परि एतु) प्रदक्षिणा करे और (पूषन्*) पूषा-वर और (श्वशुरः) कन्या का भावी ससुर और (देवरः च) देवर, पति का छोटा भाई दोनों और अन्य सम्बन्धी (प्रतीक्षन्त) उसकी प्रतीक्षा करें, उसे देखा करें। बोधायन गृह्यसूत्रे—अथैनां प्रदक्षिणमग्निं पर्याणयति अर्यम्णो अग्निं परियन्तु क्षिप्रं प्रतीक्षन्तां श्वश्रुवो देवराश्च। इति॥
टिप्पणी
(द्वि०) ‘उदयन्तु’ इति ह्विटनिः। अस्यै ब्राह्मणाः स्नपनं हरन्तु अवीरघ्नीरुदचन वापः। * ‘पूषन् सुपां सुलुक्’ इति विभक्तिलोपः। अर्यम्णोऽग्निं परियन्तुर्क्षिप्रम् प्रतीक्षन्तां श्वश्रुवो देवराश्चेति आपस्त० मन्त्रपाठ:। (तु०) ‘पर्येतु ओषम्’ इति ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Let health experts of fertility prepare exhilarating and vitalising waters for the ceremonial bath of this bride, let her circumambulate the holy fire of Aryaman, Spirit of new life, pray for and receive the inspiring gift of new life. O Pushan, lord of nourishment and growth, her father-in-law and husbands are waiting for her arrival as for a new dawn in the home.
Translation
Let the learned ones bring bathing water for this maiden. Let her go around the fire of the eternal law-giver. O nourisher Lord, father-in-law and the brother-in-law are waiting for her.
Translation
Let the learned priests bring bathing water for this bride and let them really bring the waters which guard the life of heroes and children. Let her circum-ambulate the fire just God. O Pushan (all-subsisting God) let the father-in law and brother-in-law of bride expectantly wait for her.
Translation
Hitherto let learned persons bring her bathing water: let them fetch such as guards the lives of heroes. Let her encircle the fire of the Yajna dedicated to God. Let her husband, her father-in-law and her husband’s brothers look upon her fondly.
Footnote
After she has reached her husband’s house, she should bother and perform Yajna.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३९−(अस्यै) वध्वै (ब्राह्मणाः) विद्वांसः (स्नपनीः) शोधयित्रीः सामग्रीः (आहरन्तु) प्रापयन्तु (अवीरघ्नीः) वीराणां हितकरीः (उत्) उत्तमतया (अजन्तु)गच्छन्तु प्राप्नुवन्तु (आपः) म० ३७। प्रजाः (अर्यम्णः) श्रेष्ठमानकरस्य पत्युः (अग्निम्) होमाग्निम् (पर्येतु) प्रत्येकं वधूश्च वरश्च गच्छतु (पूषन्) हे पोषकविद्वन् (प्रतीक्षन्ते) प्रतीक्षया पश्यन्ति (श्वशुरः) शावशेराप्तौ। उ० १।४४।शु+अशू आप्तौ व्याप्तौ-उरन्। शु आशु अश्यते प्राप्यते यः। दम्पत्योः पिता (देवरः) दिवेर्ऋ। उ० २।९९। दिवु क्रीडादिषु-ऋ प्रत्ययः। पत्युःकनिष्ठज्येष्ठभ्रातरः (च) ॥
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