अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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स्यो॒नं ध्रु॒वंप्र॒जायै॑ धारयामि॒ तेऽश्मा॑नं दे॒व्याः पृ॑थि॒व्या उ॒पस्थे॑। तमाति॑ष्ठानु॒माद्या॑ सु॒वर्चा॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥
स्वर सहित पद पाठस्यो॒नम् । ध्रु॒वम् । प्र॒ऽजायै॑ । धा॒र॒या॒मि॒ । ते॒ । अश्मा॑नम् । दे॒व्या: । पृ॒थि॒व्या॒: । उ॒पऽस्थे॑ । तम् । आ । ति॒ष्ठ॒ । अ॒नु॒ऽमाद्या॑ । सु॒ऽवर्चा॑: । दी॒र्घम् । ते॒ । आयु॑: । स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.४७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्योनं ध्रुवंप्रजायै धारयामि तेऽश्मानं देव्याः पृथिव्या उपस्थे। तमातिष्ठानुमाद्या सुवर्चा दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठस्योनम् । ध्रुवम् । प्रऽजायै । धारयामि । ते । अश्मानम् । देव्या: । पृथिव्या: । उपऽस्थे । तम् । आ । तिष्ठ । अनुऽमाद्या । सुऽवर्चा: । दीर्घम् । ते । आयु: । सविता । कृणोतु ॥१.४७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(स्योनम्) सुखदायक, (ध्रुवम्) दृढ़ (अश्मानम्) पत्थर को (देव्याः) दिव्य गुणवाली (पृथिव्याः) पृथिवीकी (उपस्थे) गोद में (प्रजायै) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] के निमित्त (ते) तेरेलिये (धारयामि) मैं [पति] रखता हूँ। (अनुमाद्या) निरन्तर हर्ष मनाती हुई और (सुवर्चाः) बड़ी प्रतापवाली तू (तम्) उस [पत्थर] पर (आ तिष्ठ) खड़ी हो, (सविता)सबका उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (ते) तेरी (आयुः) आयु को (दीर्घम्) लम्बी (कृणोतु) करे ॥४७॥
भावार्थ
जिस प्रकार पृथिवी परपत्थर पहाड़ दृढ़ होकर रहते हैं, इसी प्रकार वधू-वर दृढ़ प्रतिज्ञा के साथगृहाश्रम को सिद्ध करके आनन्द पावें ॥४७॥इस मन्त्र से वधू को वर शिला पर खड़ाकरावे। महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू के लिये शिला परचढ़ाना अन्य मन्त्र से लिखा है ॥
टिप्पणी
४७−(स्योनम्) सुखदायकम् (ध्रुवम्) दृढम् (प्रजायै) सन्तानसेवकादिनिमित्ताय (धारयामि) स्थापयामि (ते) तुभ्यम् (अश्मानम्)शिलाखण्डम् (देव्याः) दिव्यगुणवत्याः (पृथिव्याः) (उपस्थे) अङ्के (तम्) अश्मानम् (आ तिष्ठ) आरोह (अनुमाद्या) निरन्तरहर्षयुक्ता (सुवर्चाः) महातेजस्विनी (दीर्घम्) चिरम् (ते) तव (आयुः) जीवनम् (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (कृणोतु)करोतु ॥
विषय
पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर
पदार्थ
१. हे नववधु! (देव्याः पृथिव्या उपस्थे) = इस दिव्यगुणोंवाली पृथिवी माता की गोद में (ते) = तेरे लिए (स्योनम्) = सुखकर (धुवम्) = स्थिरता से रहनेवाले, रोगों से न हिल जानेवाले (अश्मानम्) = पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर को (प्रजायै) = उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिए (धारयामि) = धारण करता हूँ। जितना पृथिवी के सम्पर्क में उठना-बैठना होगा उतना ही शरीर स्वस्थ रहेगा। शरीर को पाषाणतुल्य दृढ़ बनाना आवश्यक है। माता का शरीर पूर्ण स्वस्थ होगा तो सन्तान भी उत्तम होगी। २. हे नववधु! तू (अनुमाद्या) = पति की अनुकूलता में हर्ष को प्राप्त करती हुई (सुवर्चा:) = उत्तम वर्चस् बनकर (ते आतिष्ठ) = उस पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर में स्थित हो। (सविता) = सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक प्रभु (ते) = तेरे लिए (आयुः दीर्घ कृणोतु) = दीर्घ जीवन करें।
भावार्थ
पत्नी गृह में पृथिवी की गोद में उठने-बैठनेवाली हो। इसप्रकार उसका शरीर स्वस्थ व दृढ़ होगा, गहों व पलंगों पर ही बैठने से नहीं। तब प्रजा भी उत्तम होगी, पति की अनुकूलता में तेजस्विनी होती हुई यह दृढ़ शरीर में निवास करें और प्रभुकृपा से दीर्घ जीवन को प्राप्त करे।
भाषार्थ
हे वधु! (ते) तेरी (प्रजायै) भावी सन्तान के लिए [आदर्शरूप में], (पृथिव्याः) पृथिवी के (उपस्थे) इस समीप-स्थान में (ध्रुवम्) सुदृढ़ (अश्मानम्) पत्त्थर (धारयामि) मैं स्थापित करता हूं, जोकि (देव्याः) तुझ देवी की (उपस्थे) गोद में मानो (स्योनम्) सुखदायक और (ध्रुवम्) सुदृढ़ [पुत्र का रूप है]। (तत्) उस पत्त्थर पर (आ तिष्ठ) आ खड़ी हो, तथा उस पुत्र पर तू अपनी “आस्था", अर्थात् आशा तथा विश्वास रख। (अनुमाद्या) तू धर्मानुसार मुझ द्वारा प्रसन्न रखने योग्य है, (सुवर्चाः) तू बड़ी तेजस्विनी है। (सविता) जगदुत्पादक परमेश्वर (ते) तेरी (आयुः) आयु (दीर्घम्) लम्बी (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[स्योनम् सुखनाम (निघं० ३।६)। अनुमाद्या= विवाहधर्मानुसार, विवाह हो जाने पर पत्नी को सदा प्रसन्न रखना,-यह विवाहधर्म है। अनुमाद्या=अनु (विवाह धर्मानुसार)+माद्या] [व्याख्या— विवाहपद्धति के अनुसार वधू को शिलारोहण कराया जाता है। शिलारोहण के लिए वर इस मन्त्र द्वारा वधू को प्रेरित करता है, ताकि वह परख सके कि शिला कितनी दृढ़ तथा मजबूत है। वर वधू को अनुभव कराता है कि जैसे पृथिवी-माता की गोद में यह शिला दृढ़ तथा मजबूत है इसी प्रकार तेरी गोद में भी दृढ़ तथा मजबूत सन्तान होनी चाहिये। वर वधू को “देव्याः” द्वारा देवी कहता है। देवी का अर्थ है दिव्यगुणों वाली। माता के देवी होते सन्तानें भी देव और देवी बन सकती हैं। वैदिक साहित्य में आदर्श शरीर को पत्त्थर द्वारा उपमित किया है। यथा “अश्मानं तन्वं कृधि" (अथर्व० १।२।२), तथा “अश्मा भवतु ते तनूः" (अथर्व० २।१३।४)। अर्थात् तू शरीर को पत्त्थर बना, तथा तेरा शरीर पत्त्थर हो। शरीर का मोटा होना स्वास्थ्य की निशानी नहीं। अपितु शरीर का मजबूत तथा कठोर होना स्वास्थ्य की निशानी हैं। ऐसी सन्तानें ही सुख पा सकतीं (स्योनम्) तथा माता-पिता को सुखी कर सकती है। भाष्यकारों ने स्योनम् पद को अश्मानम् का विशेषण माना है। परन्तु यह समझ नहीं आ सकता कि पत्त्थर सुखकारी कैसे हो सकता है। यदि अश्मानम् पद को पुत्र का रूपक मान लिया जाए तो स्योनम् शब्द रुचिकर हो जाता है, अर्थात् अश्मा सदृश सुदृढ़ हो कर सुखदायक पुत्र। मन्त्र में “आ तिष्ठ" द्वारा वधू को कहा है कि तू अश्मा सदृश सुदृढ़ सन्तान की प्राप्ति में आस्था तथा विश्वास रख। वधू की, इस आशा और विश्वास के अनूकूल, जीवनचर्या हो जाने पर सन्तानें तदनुरूप हो सकती हैं। "सुवर्चाः" द्वारा वधू को यह निर्देश दिया है कि गृहस्थधर्म का इस तरह तू पालन कर जिस से तेरा शारीरिक तेज कम न होने पाये, ताकि तू दीर्घायु हो सके।
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
हे वधु ! (देव्याः) देवी (पृथिव्याः) पृथिवी की (उपस्थे) गोद में (ते) तेरी (प्रजायै) उत्तम प्रजा के लिये (स्योनं) सुखकारक (ध्रुवम्) स्थिर (अश्मानं) शिलाखण्ड को (धारयामि) स्थापित करता हूं। (तम् आतिष्ठ) उस शिला पर पैर रखकर खड़ी होजा। (अनुमाद्याः) तू प्रसन्न हो। (सुवर्चाः) उत्तम तेज वाली हो। (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर (ते आयुः) तेरी आयु को (दीर्घम्) दीर्घ (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘ध्रुवं स्योनं’ (तृ०) ‘तमारोहानुगाद्यासुवीरा’ (द्वि०) ‘पृथिव्याम् त्वायुः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
For the sake of your progeny, I take on this delightful and inviolable adamantine discipline of avowed trust and loyalty of conjugal faith on the lap of divine mother earth. Come and abide here happy, strong and lustrous, and may Savita, lord giver of light and inspiration grant you a long, healthy life.
Translation
In the lap of the earth divine, I hold this auspicious stone firmly for your offsprings. Stand upon if, delighted and lustrous. May the creator Lord make your life span long.
Translation
I place on the lap of the earth this firm stone which may be auspicious for your children. You stand on this, become pleased and become strong with splendor. May Savitar, all-creating God. Make your life extended to long duration.
Translation
I place on the lap of Earth., O bride, a firm auspicious stone to bring thee children. Stand on it, thou, greeted with joy, resplendent: a long long life may God vouchsafe thee!
Footnote
I: The bridegroom. Just as the stone is firm, so should the bride remain steadfast and devoted to her husband, bear children and enjoy a long life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४७−(स्योनम्) सुखदायकम् (ध्रुवम्) दृढम् (प्रजायै) सन्तानसेवकादिनिमित्ताय (धारयामि) स्थापयामि (ते) तुभ्यम् (अश्मानम्)शिलाखण्डम् (देव्याः) दिव्यगुणवत्याः (पृथिव्याः) (उपस्थे) अङ्के (तम्) अश्मानम् (आ तिष्ठ) आरोह (अनुमाद्या) निरन्तरहर्षयुक्ता (सुवर्चाः) महातेजस्विनी (दीर्घम्) चिरम् (ते) तव (आयुः) जीवनम् (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (कृणोतु)करोतु ॥
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