अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
ऋषिः - वधूवास संस्पर्श मोचन
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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अ॑श्ली॒लात॒नूर्भ॑वति॒ रुश॑ती पा॒पया॑मु॒या। पति॒र्यद्व॒ध्वो॒ वास॑सः॒स्वमङ्ग॑मभ्यूर्णु॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्ली॒ला। त॒नू: । भ॒व॒ति॒ । रुश॑ती । पा॒पया॑ । अ॒मु॒या । पति॑: । यत् । व॒ध्व᳡: । वास॑स: । स्वम् । अङ्ग॑म् । अ॒भि॒ऽऊ॒र्णु॒ते ॥१.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्लीलातनूर्भवति रुशती पापयामुया। पतिर्यद्वध्वो वाससःस्वमङ्गमभ्यूर्णुते ॥
स्वर रहित पद पाठअश्लीला। तनू: । भवति । रुशती । पापया । अमुया । पति: । यत् । वध्व: । वासस: । स्वम् । अङ्गम् । अभिऽऊर्णुते ॥१.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(रुशती) चमकता हुआ (तनूः) रूप (अमुया) उस (पापया) पाप क्रिया से (अश्लीला) अश्लील [हतश्री] (भवति)हो जाता है, (यत्) जब कि (पतिः) पति (वध्वः) वधू के (वाससः) वस्त्र से (स्वम्अङ्गम्) अपने अङ्ग को (अभ्यूर्णुते) ढक लेता है ॥२७॥
भावार्थ
जब पति पुरुषार्थछोड़कर कुकामी होकर बुरी स्त्रियों के समान कुचेष्टा करता है, तब उसदुर्बलेन्द्रिय का रूप बिगड़ जाता है और वह लज्जा को प्राप्त होता है ॥२७॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३० ॥
टिप्पणी
२७−(अश्लीला) श्रीरहिता। कुरूपा (तनूः) रूपम् (भवति) (रुशती) रोचमाना (पापया) पापबुद्धया (अमुया) प्रसिद्धया (पतिः) (यत्) यदा (वध्वः) पत्न्याः (वाससः) वस्त्रात् (स्वम्) स्वकीयम् (अङ्गम्)(अभ्यूर्णुते) आच्छादयति ॥
विषय
भोगासक्ति का दुष्परिणाम
पदार्थ
१. एक युवक जिसका कि (तन:) = शरीर (रुशती) = देदीप्यमान होता है, यह (यत्) = यदि (पति:) = पति बनने पर, गृहस्थ में प्रवेश करने पर, (वध्व: वाससः) = वधू के वस्त्रों से (स्वं अङ्गं अभ्यूर्णते) = अपने अङ्गों को आच्छादित करता है, अर्थात् पत्नी के वस्त्रों को ओढ़कर घर पर ही बैठा रहता है, पत्नी के साथ प्रेमालाप में ही परायण रहता है तो उसका शरीर (अमुया पापया) = उस पापवृत्ति से (अश्लीला भवति) = श्रीशून्य हो जाता है। २. वधू के वस्त्रों को पहनकर घर में ही बैठे रहने का भाव प्रेमासक्त होकर अकर्मण्य बन जाने से है। विवाहित हो जाने पर भी एक युवक हृदय-प्रधान बनकर अपने कर्तव्यों को उपेक्षित न कर दे। पत्नी के प्रति आसक्ति उसे कर्तव्यविमुख न बना दे। ऐसा होने पर जीवन भोगप्रधान होकर नष्ट श्रीवाला हो जाता है।
भावार्थ
नवविवाहित युवक को चाहिए कि भोगप्रधान जीवनवाला न बन जाए। हर समय घर पर ही न बैठा रहे।
भाषार्थ
(रुशती) पति की चमकती हुई (तनूः) देह, (अमुया) उस (पापया) पापिन या ऋतुमती के साथ प्रसङ्ग द्वारा (अश्लीला) श्री रहित (भवति) हो जाती है, (यद्) जब कि (पतिः) पति (वध्वः) वधू के (वाससः=वाससा, ऋ० १०।८५।३०) वस्त्र या सहवास द्वारा (स्वम्) अपने (अङ्गम्) अङ्गों को (अभ्यूर्णते) आच्छादित करता है।
टिप्पणी
[व्याख्या— मन्त्र २६वें में पत्नी द्वारा प्रदर्शित पति के प्रति सच्चे अनुराग के लाभ दर्शाए हैं। परन्तु पत्नी यदि परपुरुष के साथ सहवास द्वारा पापकर्म करती है, तो वह पतिधर्म से च्युत हुई समझी जानी चाहिये, और उस के साथ गृहस्थधर्म का पालन न करना चाहिये। तथा पत्नी जब ऋतुमती हो तब भी पत्नी सहवास के लिए वर्जित है। ऐसी अवस्था में किया गया सहवास, पति के नीरोग शरीर को दूषित तथा रुग्ण कर देता है। ऋतुमती को भी पापा कहा है। इस अर्थ में पापा का अभिप्राय पापिन नहीं। अपितु "पा+अप" द्वारा ऋतुमती के साथ सहवास से पा (रक्षा) + अप (अपगत) हो जाती है। इसलिये ऋतुमती “पापा” है। ऐसी अवस्था में सहवास द्वारा शरीर रक्षारहित हो जाता है, तथा ऋत्ववस्था में पत्नी असुरक्षित१ रहती है। मन्त्र का एक और अभिप्राय भी सम्भव है, "उस पापमयी रीति द्वारा पति की सुन्दर तथा चमकती देह भी श्रीरहित हो जाती है जब कि पति स्त्रियों के से वस्त्रों द्वारा निज देह को ढांपता है, उन वस्त्रों को पहनता है। पुरुष की पौरुषपूर्ण देह मानो एक सुन्दर तथा चमकती हुई देह है। पौरुषशक्ति सम्पन्न पुरुष यदि स्त्रियों के से कपड़े पहने तो यह रीति पापमयी है, दूषित है। पुरुषों के लिये सिर में मांग निकालना भी स्त्री वेशभूषा का ग्रहण करना है ["रुशत् इति वर्णनाम, रोचते र्ज्वलतिकर्मणः (निरु० ६।३।१३)]। [१. पापा =पा+अप=अपगता। ऋत्ववस्था में सरदी आदि लग जाने तथा रोगाक्रमण के भय से स्त्री, "पा" अर्थात् रक्षा से अपगता अर्थात् असुरक्षित होती है, अतः ऐसी अवस्था में सहवास वर्जित है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(यद) यदि (वध्वः) वधू के (वाससः) वस्त्र से (पतिः) पति (स्वम् अङ्गम्) अपना शरीर (अभि ऊर्णुते) आच्छादित करें तो (अमुया) इस (पापया) पाप या बुरी रीति से (रुशती) सुन्दर शोभा युक्त (तनूः) शरीर भी (अश्लीला) गन्दा, मलिन, शोभा रहित (भवति) हो जाता है। पति कभी अपनी स्त्री के उतरे हुए कपड़े न पहना करे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘अश्रीरा’ (च०) ‘स्वमङ्गमर्धित्सते’ इति ऋ०। (प्र०) ‘अश्रीरातनुः’ (च०) ‘वाससा’ इति च बहुत्र।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
The handsome bright body of the husband becomes polluted by that impious act if he covers his body with the wife’s clothes during her period.
Translation
Coarse and vulgar becomes his body hurting with this malignity, if the husband wraps his member with the bride’s garment, (Rg. X.85.30; Variation)
Translation
The body of the husband inspite of its radiance becomes unlovely by this sinful manner if the husband covers parts of his body with the garment of her wife (which is spoiled due to menstrual course).
Translation
When the husband wraps about his limbs the garment of his wife, his beautiful body becomes graceless due to this vicious deed.
Footnote
See Rig, 10-85-30. A husband should never wear the clothes used by his wife. It is an ungraceful and ugly act.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−(अश्लीला) श्रीरहिता। कुरूपा (तनूः) रूपम् (भवति) (रुशती) रोचमाना (पापया) पापबुद्धया (अमुया) प्रसिद्धया (पतिः) (यत्) यदा (वध्वः) पत्न्याः (वाससः) वस्त्रात् (स्वम्) स्वकीयम् (अङ्गम्)(अभ्यूर्णुते) आच्छादयति ॥
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