अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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सू॒र्याया॑वह॒तुः प्रागा॑त्सवि॒ता यम॒वासृ॑जत्। म॒घासु॑ ह॒न्यन्ते॒ गावः॒ फल्गु॑नीषु॒व्युह्यते ॥
स्वर सहित पद पाठसू॒र्याया॑: । व॒ह॒तु । प्र । अ॒गा॒त् । स॒वि॒ता । यम् । अ॒व॒ऽअसृ॑जत् । म॒घासु॑ । ह॒न्यन्ते॑ । गाव॑: । फल्गु॑नीषु । वि । उ॒ह्य॒ते॒ ॥१.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यायावहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत्। मघासु हन्यन्ते गावः फल्गुनीषुव्युह्यते ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्याया: । वहतु । प्र । अगात् । सविता । यम् । अवऽअसृजत् । मघासु । हन्यन्ते । गाव: । फल्गुनीषु । वि । उह्यते ॥१.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्यायाः) प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या का (वहतुः) दाय [यौतुक, कन्याको दिया पदार्थ] (प्र अगात्) सन्मुख चले, (यम्) जिस [पदार्थ] को (सविता)जन्मदाता पिता (अव असृजत्) दान करे। (मघासु) सत्कार क्रियाओं में (गावः) वाचाएँ (हन्यन्ते) चलें, और वह [वधू] (फल्गुनीषु) सफल क्रियाओं के बीच (वि उह्यते) लेजाई जावे ॥१३॥
भावार्थ
पिता को योग्य है किविवाह के समय कन्या को स्त्रीधन अर्थात् योग्य वस्त्र, अलंकार, धन दान करे और सबलोग आशीर्वाद बोल कर उस क्रिया को सफल करें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(सूर्यायाः) प्रेरिकायाः।सूर्यदीप्तिवत्तेजोवत्याः कन्यायाः (वहतुः) एधिवह्योश्चतुः। उ० १।७७। वहप्रापणे−चतुः। विवाहकाले कन्यायै देयः पदार्थः। विवाहः। वहनकारणम् (प्र अगात्)प्रकर्षेण गच्छतु (सविता) जनकः। पिता (यम्) पदार्थम् (अव असृजत्) दत्तवान् (मघासु) मह पूजायाम्-अच् अर्शआद्यच्। मघं धननाम-निघ० २।१०। सत्कारवतीषुक्रियासु। धनवतीषु क्रियासु (हन्यन्ते) हन हिंसागत्योः। गम्यन्ते। प्राप्यन्ते (गावः) वाचः (फल्गुनीषु) फलेर्गुक् च। उ० ३।५६। फल निष्पत्तौ-उनन्, गुक् चङीप्। सफलक्रियासु (व्युह्यते) विविधं नीयते ॥
विषय
गोदान
पदार्थ
१. (सूर्यायाः वहतु प्रागात्) = सूर्या का दहेज [गाय के रूप में दिया जानेवाला सामान] आज गया है। (सविता) = सूर्या के जन्मदाता पिता ने (यम् अवासजत्) = जिसको दिया है या भेजा है। (मघास) = मघा नक्षत्र में (गाव: हन्यन्ते) = दहेज के रूप में दी जानेवाली गौएँ भेजी जाती हैं [हन् गतौ] और (फल्गुनीषु) = फल्गुनी नक्षत्र में (पर्युह्यते) = कन्या का विवाह कर दिया जाता है। २. मघा नक्षत्रवाली पूर्णिमा माघी कहलाती है और फल्गुनी नक्षत्रवाली पूर्णिमा फाल्गुनी। एवं विवाह से एक मास पूर्व गोदान-विधि सम्पन्न हो जाती है। ये गौ इसलिए दी जाती है कि गुरुकुल में शिक्षित होनेवाला यह तपःकृश युवक गोदुग्ध से आप्लावित शरीरवाला हो जाए।
भावार्थ
गोदान-विधि विवाह से एक मास पूर्व सम्पन्न हो जाती है।
भाषार्थ
(सूर्यायाः) सूर्या ब्रह्मचारिणी का (वहतुः) विवाह (प्र, अगात्) समीप आ गया है, (यम्) जिस की कि (सविता) उत्पादक पिता ने (अवासृजत्) स्वीकृति१ दी है, या जिसका सर्जन किया है। (मघासु) मघा नक्षत्रों अर्थात् माघमास में (गावः) विवाह सम्बन्धी वचन (हन्यन्ते)२ प्रेषित किये जाते हैं, और (फल्गुनीषु) फल्गुनी नक्षत्रों अर्थात् फाल्गुनमास में (व्युह्यते) सूर्या विवाहित होती है।
टिप्पणी
[वहतुः = विवाह। यथा "यां कल्पयन्ति वहतौ वधूमिव" (अथर्व० १०।१।१) में "वहतु" का अर्थ विवाह ही है। गावः; गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। हन्यन्ते=हन् हिंसा और गतिः। यहां गति अर्थ में "हन्" का प्रयोग हुआ है। अर्थात् माघ में विवाह सम्बन्धी वचन भेजे जाते हैं, प्रेषित किये जाते हैं। माघमास शीत प्रधान होता है, इसलिये इस मास में वाग्दान कर देना, और फाल्गुनमास में विवाह करना श्रेष्ठ माना गया है। फाल्गुनमास में शीत कम हो जाता है। वाग्दान और विवाह में लम्बे समय का अन्तर न होना चाहिये। आपस्तम्ब गृह्यसूत्रों में "मघाभिः गावो गृह्यन्ते", "फल्गुनीभ्यां व्यूह्यते" पाठ मिलता है। आपस्तम्ब ने हन्यन्ते के स्थान में गृह्यन्ते पद पढ़ा है। इससे भी प्रतीत होता है कि हन्यन्ते में हन् का अर्थ "वध करना" नहीं है। महर्षि दयानन्द का, वाग्दान तथा विवाह के सम्बन्ध में, निम्नलिखित विचार हैं। "जव कन्या और वर के विवाह का समय हो, अर्थात् जब एक वर्ष या छः महीने ब्रह्मचर्याश्रम और विद्यापूर्ण होने में शेष रहें तब उन कन्या और कुमारों का प्रतिबिम्ब अर्थात् जिस को फोटोग्राफ कहते हैं, अथवा प्रतिकृति उतार के कन्याओं की अध्यापिकाओं के पास कुमारों की, कुमारों के अध्यापकों के पास कन्याओं की प्रतिकृति भेज देवें। जिस जिस का रूप मिल जाय उस उस के इतिहास अर्थात् जन्म से लेके उस दिन पर्यन्त जन्म चरित का पुस्तक जो हो उस को अध्यापक लोग मंगवा कर देखें। जब दोनों के गुण कर्म स्वभाव सदृश हों तब जिस जिस के साथ जिस जिस का विवाह होना योग्य समझें उस उस पुरुष और कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास कन्या और वर के हाथ में देवें और कहें कि इस में जो तुम्हारा अभिप्राय हो तो हम को विदित कर देना, जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने की हो जाए तब वहां, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में, विवाह योग्य है। जब वे समक्ष हों तब उन अध्यापकों वा कन्या के माता-पिता आदि भद्र पुरुषों के सामने उन दोनों की आपस से बातचीत शास्त्रार्थ कराना, और जो कुछ गुप्त व्यवहार पूछें सो भी सभा में लिख कर एक दूसरे के हाथ में दे कर प्रश्नोत्तर कर लेवें" (सत्यार्थ प्रकाश)। महर्षि ने विवाह सम्बन्ध में गुरुओं को विशेष महत्ता दी है। गुरु भी "सविता" कहे जा सकते हैं। वे विद्या के गर्भ से जन्म देकर व्यक्ति को द्विजन्मा बनाकर जन्म के कारण होते हैं। विशेषः–मन्त्र में "मघासु" शब्द पठित है। ऋग्वेद (१०।८५।१३) में "अघासु" पाठ है। अघासु में "अ+घा+सु" द्वारा "अ" निषेधार्थक है, और "घा" हन् धातु का रूप प्रतीत होता है। इस से स्पष्ट होता है कि "अघा" नक्षत्रों में प्राणिगौओं का हनन निषिद्ध किया है। इस दृष्टि से मघासु को हम "म (मा)+घा (हन्)" समझ सकते हैं। इस का भी अभिप्राय यह होगा कि मघा नक्षत्रों में प्राणिगौओं का वध निषिद्ध है]। [१. अवसृज्, अवसर्ग = Allawing one to follow one's Inclination; स्वीकृति देना (आप्टे)। २. तथा माघ मास में "गावः" आदित्य की रश्मियां, "हन्यन्ते" मृतप्राय हो जाती हैं, और फाल्गुनमास में रश्मिसमूह "व्युह्यते" आदित्य द्वारा विशेषतया पुनः प्राप्त कर लिया जाता है। "सर्वे रश्मयो गाव उच्यन्ते" (निरु० २।२।७)। इस अर्थ में हन्=वध। व्युह्यते = वि + उह् (वह् प्रापणे) अभिप्राय यह रश्मियों के मृतप्राय होने पर शैत्याधिकता में केवल वाग्दान ही हो, विवाह नहीं। फाल्गुनमास में, ऋतुराज वसन्त के कारण, प्रकृति सुहावनी हो जाती है, और शैत्य का भी प्रकोप नहीं रहता।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(सविता) उत्पादक पिता (यम्) जिस दहेज को (अवासृजत्) प्रदान करता है वही (सूर्यायाः) सूर्या = कन्या का (वहतुः) दहेज (प्र अगात्) आगे जाये। (मघासु*) मघा नक्षत्रों के योग में (गावः) सूर्य की किरणें भी (हन्यन्ते) मारी जाती हैं, मन्दी हो जाती हैं और इसी कारण (फल्गुनीषु) फल्गुनी नक्षत्रों के योग में (व्युह्यते) विवाह किया जाता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘अधासु’ (च०) ‘अर्जुन्योः पर्युह्यते’ इति ऋ०। * मघाः नक्षत्राणि सिंहराशौ। फल्गुन्यश्चापि तत्रैव। अर्जुनी फल्गुनी च पर्यायौ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
The bridal procession of Surya proceeds which Savita, her father, starts. The bullocks are made to move in Magha nakshatra and the bride is inducted into the groom’s home in Phalguni nakshatra.
Translation
The bridal procession of the damsel of marriageable age, bidden farewell by the (bride’s) sire, goes forth. In the days of Magha, the cows are driven; in the day of Phalguni the wedding takes place. (Rg. X.85.13)
Translation
The bridal gift of Surya which the sun gives moves along. In the Maghas the rays of sun are refracted and in the Phalgunis the night is passed with difficulty.
Translation
The dowry given by the father to the girl should go ahead. Words of praise should be uttered to pay her respects. She should be carried in the accompaniment of successful ritual observances.
Footnote
See Rig, 10-85-13.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(सूर्यायाः) प्रेरिकायाः।सूर्यदीप्तिवत्तेजोवत्याः कन्यायाः (वहतुः) एधिवह्योश्चतुः। उ० १।७७। वहप्रापणे−चतुः। विवाहकाले कन्यायै देयः पदार्थः। विवाहः। वहनकारणम् (प्र अगात्)प्रकर्षेण गच्छतु (सविता) जनकः। पिता (यम्) पदार्थम् (अव असृजत्) दत्तवान् (मघासु) मह पूजायाम्-अच् अर्शआद्यच्। मघं धननाम-निघ० २।१०। सत्कारवतीषुक्रियासु। धनवतीषु क्रियासु (हन्यन्ते) हन हिंसागत्योः। गम्यन्ते। प्राप्यन्ते (गावः) वाचः (फल्गुनीषु) फलेर्गुक् च। उ० ३।५६। फल निष्पत्तौ-उनन्, गुक् चङीप्। सफलक्रियासु (व्युह्यते) विविधं नीयते ॥
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