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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 55
    ऋषिः - आत्मा देवता - पुरस्ताद् बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    बृह॒स्पतिः॑प्रथ॒मः सू॒र्यायाः॑ शी॒र्षे केशाँ॑ अकल्पयत्। तेने॒माम॑श्विना॒ नारीं॒ पत्ये॒सं शो॑भयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑:। प्र॒थ॒म: । सू॒र्याया॑: । शी॒र्षे । केशा॑न् । अ॒क॒ल्प॒य॒त् । तेन॑ । इ॒माम्। अ॒श्वि॒ना॒ । नारी॑म् । पत्ये॑ । सम् । शो॒भ॒या॒म॒सि॒ ॥१.५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिःप्रथमः सूर्यायाः शीर्षे केशाँ अकल्पयत्। तेनेमामश्विना नारीं पत्येसं शोभयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति:। प्रथम: । सूर्याया: । शीर्षे । केशान् । अकल्पयत् । तेन । इमाम्। अश्विना । नारीम् । पत्ये । सम् । शोभयामसि ॥१.५५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रथमः) पहिले से हीवर्तमान (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों के स्वामी [परमेश्वर] ने (सूर्यायाः)प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (शीर्षे) मस्तक पर (केशान्) केशों को (अकल्पयत्) बनाया है। (तेन) इस [कारण] से (अश्विना) हे विद्याको प्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुषों के समाज !] (इमाम् नारीम्) इस नारी को (पत्ये)पति के लिये (सम्) ठीक-ठीक (शोभयामसि) हम शोभायमान करते हैं ॥५५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने शिर केकेशों और वैसे ही शरीर के अङ्गों को अपने-अपने प्रयोजन के लिये सुडौल बनाया है।गुरुजनों को योग्य है कि वधू-वर को संसार के हित के लिये विद्या सुशीलता आदि सेसुशिक्षित करें कि वे अपने शरीर के अङ्गों को सुडौल और हृष्ट-पुष्ट रक्खें ॥५५॥

    टिप्पणी

    ५५−(बृहस्पतिः) महतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (प्रथमः) अग्रे वर्तमानः (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः सूर्यवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (शीर्षे) मस्तके (केशान्) (अकल्पयत्) रचितवान् (तेन) कारणेन (इमाम्) विदुषीम् (अश्विनौ) हेप्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (नारीम्) नरपत्नीम् (पत्ये) स्वामिने (सम्)सम्यक् (शोभयामसि) शोभयामः। भूषयामः ॥

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    विषय

    केश-प्रसाधन-जनित 'सौन्दर्य'

    पदार्थ

    १. (बृहस्पतिः) = ब्रह्मणस्पति, ज्ञान के स्वामी (प्रथमः) = [प्रथ विस्तारे] शक्तियों के विस्तारवाले प्रभु ने (सूर्यायाः शीर्षे) = सूर्य के समान ज्ञानदीप्त अथवा सूर्य के समान सरणशीला [क्रियाशीला] इस नारी के शीर्षे-सिर पर (केशान् अकल्पयत्) = बालों की रचना की है। हे (अश्विना) = स्त्री व पुरुषो! (इमां नारीम्) = इस नारी को (तेन) = उस केशसमूह से (पत्ये) = पति के लिए संशोभयामसि सम्यक् शोभित करते हैं। बाल स्त्री के सिर की शोभा की वृद्धि के कारण बनते हैं। केशों की ठीक स्थिति स्त्री की शोभा व सौन्दर्य को बढ़ानेवाली होती है।

    भावार्थ

    स्त्री केशों की सुस्थिति द्वारा अपनी शोभा को बढ़ानेवाली होती है।

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    भाषार्थ

    (प्रथमः) अनादिकाल से विद्यमान (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्ड तथा महती वेदवाणी के पति परमेश्वर ने, (सूर्यायाः) इस सूर्या ब्रह्मचारिणी के (शीर्षे) सिर पर (केशान्) केशों का (अकल्पयत्) निर्माण किया था। (अश्विना) हे वर के या वधू के माता-पिता ! (तेन) उस केशकलाप द्वारा (इमाम्, नारीम्) इस नारी को, (पत्ये) पति के लिये, (सम्, शोभयामसि) हम सम्यक् प्रकार से शोभायमान करते हैं।

    टिप्पणी

    [बृहस्पतिः= परमेश्वर बृहती वेदवाणी का पति है यथा "बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः" (ऋ० १०।७१।१) में वाणियों में अग्रवाणी अर्थात् वेदवाणी का सम्बन्ध बृहस्पति के साथ दर्शाया है। विवाह के समय बृहस्पति अर्थात् पुरोहित के निर्देशानुसार कन्या के सम्बन्धी कन्या के केशों को संवार कर कन्या की शोभा को बढ़ाए ताकि पति का अनुराग उस पर हो सके।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (बृहस्पतिः) ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने (प्रथमः) प्रथम ही (सूर्यायाः) पुत्र प्रसव करने में समर्थ स्त्री-जाति के (शीर्षे) शिरपर (केशान्) केशों को (अकल्पयत्) बनाया है। (तेन) उस कारण ही हे (अश्विना) स्त्री पुरुषो ! (इमाम् नारीम्) इस स्त्री को (पत्ये) पति के चित्ताकर्षण के लिये हम (संशोभयामसि) भली प्रकार सुशोभित करें।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘प्रथमः’ इत्यधिक उपसर्गः, इति ह्विटनिकामितम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    First of all it was Brhaspati, lord of expansive nature, who created the hair on the head of this Surya, maiden child of the sun. After that we, Ashvins, prepare and consecrate this bride for the groom.

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    Translation

    First of all, the Lord supreme arrange the hair on the head of a maiden of marriageable age. Thereby, O twins divine, we adorn beautifully this woman for her husband.

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    Translation

    Brihaspati, the Master of grand worlds and space has first made hair on the head of girl who is shining like sun's splendor, so Ashvinau, the Prana and Apana beautify this woman for husband.

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    Translation

    God first arranged the hair on the bride’s head. Therefore, O ladies and gentlemen we adorn this woman for her lord.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५५−(बृहस्पतिः) महतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (प्रथमः) अग्रे वर्तमानः (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः सूर्यवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (शीर्षे) मस्तके (केशान्) (अकल्पयत्) रचितवान् (तेन) कारणेन (इमाम्) विदुषीम् (अश्विनौ) हेप्राप्तविद्यौ स्त्रीपुरुषसमूहौ (नारीम्) नरपत्नीम् (पत्ये) स्वामिने (सम्)सम्यक् (शोभयामसि) शोभयामः। भूषयामः ॥

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