अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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सोमो॑वधू॒युर॑भवद॒श्विना॑स्तामु॒भा व॒रा। सू॒र्यां यत्पत्ये॒ शंस॑न्तीं॒ मन॑सासवि॒ताद॑दात् ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑: । व॒धू॒ऽयु: । अ॒भ॒व॒त् । अ॒श्विना॑ । आ॒स्ता॒म् । उ॒भा । व॒रा । सू॒र्याम् । यत् । पत्ये॑ । शंस॑न्तीम् । मन॑सा । स॒वि॒ता । अ॒द॒दा॒त् ॥१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमोवधूयुरभवदश्विनास्तामुभा वरा। सूर्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसासविताददात् ॥
स्वर रहित पद पाठसोम: । वधूऽयु: । अभवत् । अश्विना । आस्ताम् । उभा । वरा । सूर्याम् । यत् । पत्ये । शंसन्तीम् । मनसा । सविता । अददात् ॥१.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सोमः) शुभगुणयुक्तब्रह्मचारी (वधूयुः) वधू की कामना करनेहारा (अभवत्) हो, (उभा) दोनों (अश्विना)विद्या को प्राप्त [वधू वर] (वरा) परस्पर चाहनेवाले [वा श्रेष्ठ गुणवाले] (आस्ताम्) हों, (यत्) जब (पत्ये) पति के लिये (मनसा) मनसे (संशन्तीम्) गुणकीर्तन करती हुई (सूर्याम्) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समानतेजवाली] कन्या को (सविता) जगत् का उत्पादक परमात्मा (अददात्) देवे ॥९॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी औरब्रह्मचारिणी पूर्ण विद्या प्राप्त करके परस्पर गुणों की परीक्षा करके कराकेगृहाश्रम में प्रवेश करें और परमेश्वर को धन्यवाद दें कि बड़े भाग्य से तुल्यगुण कर्म स्वभाववाले स्त्री-पुरुषों का जोड़ा मिलता है ॥९॥यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
९−(सोमः)शुभगुणयुक्तो ब्रह्मचारी (वधूयुः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। वधू-क्यच्।क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। उ प्रत्ययः। वधूकामः (अभवत्) भवेत् (अश्विना) म० ८।परस्परेच्छुकौ। श्रेष्ठौ (सूर्याम्) प्रेरयित्रीम्। तेजस्विनीं कन्याम् (यत्)यदा (पत्ये) स्वाम्यर्थम् (संशन्तीम्) गुणकीर्तनं कुर्वतीम् (मनसा) हृदयेन (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (अददात्) दद्यात् ॥
विषय
'सूर्या व सोम' का परिणय
पदार्थ
१. पत्नी को 'सूर्या' बनना चाहिए तो पति को 'सोम'। पति शरीर में सोम का रक्षण करता हुआ सोमशक्ति का पुब्ज बने। सोमरक्षण से वह अत्यन्त सौम्य स्वभाव का बन पाएगा। यह (सोमः) = सोमशक्ति का रक्षक व सौम्य स्वभाव का युवक (वधूयुः अभवत्) = वधू की कामनावाला हुआ, (उभा अश्विना) = दोनों माता-पिता वरा-उसके साथी का चुनाव करनेवाले (आस्ताम्) = थे। २. "सूर्या' के माता-पिता उसके लिए योग्य साथी की खोज में थे। 'सोम' युवक के माता पिता भी उसके लिए एक योग्य युवति की खोज में थे। (अग्निः) = ज्ञानी आचार्य ने उन्हें उचित परामर्श दिया। (यत्) = जब उसके सुझाव पर (पत्ये शंसन्तीम्) = पति का शंसन करनेवाली (सूर्याम्) = सूर्या को (सविता) = जन्म देनेवाले पिता ने (मनसा) = पूरे मन से (अददात्) = सोम के लिए दे दिया। इसप्रकार सूर्या का सोम के साथ विवाह सम्पन्न हो गया।
भावार्थ
युवक की विवाह करने की इच्छा हुई। माता-पिता ने खोज की और आचार्य के परामर्श से माता-पिता ने अपनी कन्या को वर को सौंप दिया।
भाषार्थ
(सोमः) वीर्य या वीर्यवान् ब्रह्मचारी (वधूयुः) वधू की कामना वाला (अभवत्) हुआ (अश्विना = अश्विनौ) तब उस के माता-पिता (उभा= उभौ) दोनों (वरा =वरौ) कन्या का वरण, चुनाव करनेवाले (आस्ताम्) हुए, (यत्) जब कि (पत्ये) पति के लिए (शंसन्तीम्) चाहना करती हुई (सूर्याम्) सूर्या-ब्रह्मचारिणी को, (सविता) उत्पादक पिता ने (मनसा) मन से अर्थात मनन करके, विचारपूर्वक तथा प्रसन्नतापूर्वक (अददात्) कन्या प्रदान किया।
टिप्पणी
[सोमः = सोम का अर्थ वीर्य हे [मन्त्र १]। जैसे मन्त्र ८ में अग्नि पद द्वारा रजस्वला ब्रह्मचारिणी का वर्णन हुआ है, वैसे मन्त्र ९ में सोम पद द्वारा वीर्यवान् वर का वर्णन हुआ है। वधूयुः = वधू + क्यच् (इच्छा) + उ (वाला)। वधू की इच्छा वाला। शंसन्तीम् = शंस् To praise, approve (आप्टे)। सविता = षु प्रसवे; षूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अर्थात् उत्पादक पिता। अददात् = डुदाञ् दाने (जुहोत्यादि)। व्याख्या- आदित्य ब्रह्मचारी की सोमशक्ति में जब वधू की कामना जागरित हो तब उस के लिये सदृश पत्नी का चुनाव होना चाहिये, उस से पूर्व नहीं। सर्वोत्तम है यदि आदित्य ब्रह्मचारी की सोमशक्ति सदा सात्त्विक बनी रहे, और उस में वधू के लिए इच्छा जागरित न हो। ऐसे सात्त्विक ब्रह्मचारियों द्वारा जगत् का कल्याण हो जाता है। प्राणिजगत् रजस् और वीर्य के अर्थात् अग्नि और सोम के संयोग द्वारा उत्पन्न होता है, इसलिये प्राणिजगत् "अग्नीषोमीय" है।
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
जब (सोमः) सोम, वीर्यवान् पुरुष (वधूयुः) वधू की कामना से युक्त (अभवत्) होवे। तब (अश्विनौ) स्त्री पुरुष (उभौ) दोनों (वरा) परस्पर एक दूसरे का वरण करने वाले (आस्ताम्) होवें। और (यत्) जब दोनों की अभिलाषा पूरी तरह से हो तब (पत्ये) पति की (शंसन्तीम्) अभिलाषा करने वाली (सूर्याम्) कन्या को (सविता) उसका उत्पादक पिता (मनसा) अपने मनः संकल्प द्वारा (अददात्) दान करे, पति के हाथ सौंप दे।
टिप्पणी
(च०) ‘दधात्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Soma is the proposer and Ashvins, pranic energies, the first inspiration and attraction, when Savita, giver of life and light, gives away the bride, love lorn at heart, to the bride groom.
Translation
The young bachelor (Soma) desires to have a bride: the twin divines become the two groomsmen. The divine impeller (the Savitr, the Sun) gives away the bride, quite ripe in age, to the husband (Soma), with matured intelligence. (Rg. X.85.9)
Translation
Soma becomes the desirer of the bride, the two Ashram, become the companions of Surya when the sun hands over willing Surya for her husband.
Translation
May the highly qualified Brahmchari long for the bride. May both learned husband and wife be full of affection, when the father bestows on her lord his daughter praising her husband willingly.
Footnote
See Rig, 10-85-9. The verse has been explained by Maharshi Dayananda in the Sanskar Vidhi in the chapter on marriage.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(सोमः)शुभगुणयुक्तो ब्रह्मचारी (वधूयुः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। वधू-क्यच्।क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। उ प्रत्ययः। वधूकामः (अभवत्) भवेत् (अश्विना) म० ८।परस्परेच्छुकौ। श्रेष्ठौ (सूर्याम्) प्रेरयित्रीम्। तेजस्विनीं कन्याम् (यत्)यदा (पत्ये) स्वाम्यर्थम् (संशन्तीम्) गुणकीर्तनं कुर्वतीम् (मनसा) हृदयेन (सविता) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (अददात्) दद्यात् ॥
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