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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    अ॒हं विष्या॑मि॒मयि॑ रू॒पम॑स्या॒ वेद॒दित्प॑श्य॒न्मन॑सः कु॒लाय॑म्। न स्तेय॑मद्मि॒मन॒सोद॑मुच्ये स्व॒यं श्र॑थ्ना॒नो वरु॑णस्य॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । वि । स्या॒मि॒ । मयि॑ । रू॒पम् । अ॒स्या॒: । वेद॑त् । इत् । पश्य॑न् । मन॑स: । कु॒लाय॑म् । न । स्तेय॑म् । अ॒द्मि॒ । मन॑सा । उत् । अ॒मु॒च्ये॒ । स्व॒यम् । अ॒श्ना॒न: । वरु॑णस्य । पाशा॑न् ॥१.५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं विष्यामिमयि रूपमस्या वेददित्पश्यन्मनसः कुलायम्। न स्तेयमद्मिमनसोदमुच्ये स्वयं श्रथ्नानो वरुणस्य पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । वि । स्यामि । मयि । रूपम् । अस्या: । वेदत् । इत् । पश्यन् । मनस: । कुलायम् । न । स्तेयम् । अद्मि । मनसा । उत् । अमुच्ये । स्वयम् । अश्नान: । वरुणस्य । पाशान् ॥१.५७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 57
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्याः) इस [पत्नी]के (रूपम्) रूप [स्वभाव वा सौन्दर्य] को (मनसः) अपने मन का (कुलायम्) आधार (वेदत्) जानता हुआ और (पश्यन्) देखता हुआ (इत्) ही (अहम्) मैं [वर] (मयि) अपनेमें (वि ष्यामि) निश्चय करके धारण करता हूँ। (स्तेयम्) चोरी के पदार्थ को (न)नहीं (अद्मि) खाता हूँ, (मनसा) विज्ञान के साथ (वरुणस्य) रुकावट [अर्थात् विघ्न]के (पाशान्) फन्दों को (स्वयम्) अपने आप [अर्थात् पुरुषार्थ से] (श्रथ्नानः)ढीला करता हुआ (उत् अमुच्ये) मैं छूट गया हूँ ॥५७॥

    भावार्थ

    विद्वान् पति-पत्नीपरस्पर उत्तम गुण स्वभाव को हृदय में धारण करके विचारपूर्वक विघ्नों को हटाकरनिष्कपट होकर उन्नति करें ॥५७॥

    टिप्पणी

    ५७−(अहम्) वरः (वि ष्यामि) व्यवसायेन निश्चयेनधारयामि (मयि) आत्मनि (रूपम्) स्वभावम्। सौन्दर्यम् (अस्याः) पत्न्याः (वेदत्)विदन्। जानन् (इत्) एव (पश्यन्) अवलोकयन् (मनसः) अन्तःकरणस्य (कुलायम्) आधारम् (न) निषेधे (स्तेयम्) स्तेन-यत्, नलोपः। चौर्यपदार्थम् (अद्मि) भक्षयामि (मनसा)विज्ञानेन (उत्) उत्कर्षेण (अमुच्ये) मुक्तोऽस्मि (स्वयम्) आत्मना। पुरुषार्थेन (श्रथ्नानः) शिथिलीकुर्वन् (वरुणस्य) आवरणस्य। विघ्नस्य (पाशान्) बन्धान् ॥

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    विषय

    पश्यन् वेदत्

    पदार्थ

    १. (अस्याः रूपम्) = इस युवति के रूप को अपने (मनसः कुलायम् पश्यन्) = मन का घोंसला, मन का आश्रय-स्थान देखता हुआ (वेदत् इत्) = निश्चय से समझता हुआ ही (अहम्) = मैं इसके रूप को (मयि विष्यामि) = अपने हृदय में [विष्यति to complete] पूर्ण करता हूँ, पूर्णरूप से धारण करता है। इसका रूप मेरे मन के लिए आकर्षक हुआ है। उस आकर्षण के परिणामों को भी समझता हुआ मैं इसके रूप को अपने रूप में स्थान देता हूँ। 'मैं केवल हृदय से इसे चाहता है, ऐसी बात नहीं। मस्तिष्क से विचार करके मैं इस सम्बन्ध को स्वीकार कर रहा हूँ। २. आज से (न स्तेयं अधि) = कोई भी वस्तु मैं चुपके-चुपके अकेले न खाने का व्रत लेता हूँ। (मनसा उमुच्ये) = अलग खाने के विचार को मैं मन से ही छोड़ देता है। इसप्रकार (वरुणस्य पाशान्) = व्रतों के बन्धन के तोड़नेवालों को बाँधनेवाले वरुण के पाशों को स्वयं श्रमान: स्वयं ढीला करनेवाला होता हूँ। मैं अपने को व्रतों के बन्धनों में बाँधकर चलता हूँ और परिणामत: वरुण के पाशों से बद्ध नहीं होता।

    भावार्थ

    एक युवक युवति के रूप को तो देखता ही है, परन्तु केवल भावुकतावश आकृष्ट न होकर मस्तिष्क से सोचकर सम्बन्ध को स्थापित करता है। इसी कारण यह वरुण के पाशों से जकड़ा नहीं जाता। यह आज से 'अकेले न खाने का' व्रत लेता है। मिलकर खाना परस्पर प्रेम का वर्धक होता है।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं पति (अस्याः) इस पत्नी के (रूपम्) स्वरूप को (मयि) अपने में (विष्यामि) बान्ध लेता हूं, (मनसः) अपने मनरूपी पक्षी का (कुलायम्) घोंसला (वेदत्) इस पत्नी को जानता हुआ, (पश्यन्) और देखता हुआ। (स्तेयम्) पत्नी से चुराकर (न अद्मि) मैं नहीं खाता। (मनसा) मन से अर्थात् स्वेच्छापूर्वक (उद् अमुच्ये) चोरी से खाना मैं छोड़ देता हूं, इस प्रकार (वरुणस्य) श्रेष्ठ परमेश्वर के (पाशान्) प्रेमबन्धनों को (स्वयम्) अपने-आप अर्थात् स्वेच्छापूर्वक (श्रथ्नानः)१ मैं दृढ़बद्ध करता हूं।

    टिप्पणी

    [विष्यामि= वि (विशेषतया) + षिञ्, (बन्धने)। (श्रथ्नानः=श्रथन = Tying, Binding (आप्टे)] [व्याख्या—पति कहता है कि मैं पत्नी के दोनों स्वरूपों को,- शारीरिक तथा मानसिक स्वरूपों को, निज हृदय में बांध लेता हूं। अभिप्राय यह कि मैं इन स्वरूपों का सदा ध्यान करता हुआ पत्नीव्रत के मार्ग से विचलित न हूंगा। पति यह भी कहता है कि मैं अपने मनरूपी पक्षी का घोंसला इस पत्नी को जान रहा हूं, और साक्षात् देख रहा हूं। घोंसले में पक्षी अपने आप को सुरक्षित तथा निश्चिन्त पाता है, इसी प्रकार पति कहता है कि विचारशीला और सौन्दर्य की प्रतिमारूप पत्नी को पा कर मेरा मन भटकेंगा नहीं। पति यह भी प्रण करता है कि वह पत्नी से छिप कर कोई अन्नभोग न करेगा, अपितु हम दोनों का खान-पान इकट्ठा हुआ करेगा। छिप कर खान-पान के मानसिक विचार को भी त्याग देने का प्रण पति करता है। "मनसोदमुच्ये" - का यह अभिप्राय है। अन्त में पति कहता है कि इस प्रकार स्वयं मैं गृहस्थ जीवन में परमेश्वरीय प्रेमपाशों को दृढ़ बद्ध करता रहूंगा, ताकि हम में पारस्परिक अनुराग बढ़ता जाए, और हमारे गृहस्थजीवन में विराग, द्वेष तथा परस्परोपेक्षा का लेशमात्र भी न रहे।] [१. भाष्यकारों ने श्रथ्नानः का अर्थ किया है, शिथिल करता हुआ, ढीला करता हुआ। यह अर्थ मन्त्रोक्त भावनाओं के विपरीत है। पत्नी के स्वरूपों को चित्त में बांधना उसे अपने मन का घोंसला जानना तथा पृथक् अन्नग्रहण का विचार भी न करना,-इस से प्रेमपाश दृढ़ होते हैं, न कि शिथिल।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं (अस्याः) इसके (रूपम्) रूपको (पश्यन्) देख कर और मैं (मयि) अपने में (अस्याः) इसके (मनसः) चित्तके (कुलायम्) विश्रामार्थ बने घोंसले के समान आश्रयस्थान (वेदत् इत्) जानता हुआ ही (विष्यामि) इसके सम्बन्ध में विविध प्रकार से विचार करता हूं कि मैं (स्तेयम्) कभी चुराकर (न अद्मि) न खाऊं। मैं (स्वयं) अपने आप (वरुणस्य) वरुण-राजा के समान श्रेष्ठ पुरुष के (पाशान्) पाशों को, व्यवस्था बन्धनों को (श्रथ्नानः) अपने ऊपर बांधता हुआ (मनसा उद् अमुच्ये) अपने चित्त से उसे मुक्त करता हूं, स्वतन्त्र करता हूं। अथवा—(वरुणस्य पाशान् स्वयं श्रथ्नानः) वरुण परमेश्वर के बनाये दुष्टों को दण्ड देने वाले पाशों को शिथिल करता हुआ अपने को चौर्य आदि पापों से (उद् अमुच्ये) मुक्त करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    I have fixed into me the love and beauty of this maiden, knowing and seeing that therein is the seat of my heart and love. I do not take anything by stealth, having tied and now loosened the bonds of Varuna myself. I am mentally free, yet freely bound.

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    Translation

    I reflect her beauty in myself. Watching her, the nest of my mind, I have come to know. I shall not eat stealthily. Unloosening the fetters of the venerable Lord, I free myself in mind.

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    Translation

    O bride, just as I fore-seeing the progress of family through my mind, love your beauty, desire you, so you also be attracted in me. I leave with good intention to conceal anything from you and I say I would not also eat or use any thing stealthily. I myself even being unsteady would remove all the obstacles of righteousness and you are also expected to act accordingly.

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    Translation

    Knowing the nature of her mind and looking at her beauty, I fasten her in my love. I eat no stolen food: through self exertion untying the nooses of obstacles I am freed in spirit.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५७−(अहम्) वरः (वि ष्यामि) व्यवसायेन निश्चयेनधारयामि (मयि) आत्मनि (रूपम्) स्वभावम्। सौन्दर्यम् (अस्याः) पत्न्याः (वेदत्)विदन्। जानन् (इत्) एव (पश्यन्) अवलोकयन् (मनसः) अन्तःकरणस्य (कुलायम्) आधारम् (न) निषेधे (स्तेयम्) स्तेन-यत्, नलोपः। चौर्यपदार्थम् (अद्मि) भक्षयामि (मनसा)विज्ञानेन (उत्) उत्कर्षेण (अमुच्ये) मुक्तोऽस्मि (स्वयम्) आत्मना। पुरुषार्थेन (श्रथ्नानः) शिथिलीकुर्वन् (वरुणस्य) आवरणस्य। विघ्नस्य (पाशान्) बन्धान् ॥

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