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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 38
    ऋषिः - आत्मा देवता - पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    इ॒दम॒हं रुश॑न्तंग्रा॒भं त॑नू॒दूषि॒मपो॑हामि। यो भ॒द्रो रो॑च॒नस्तमुद॑चामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । अ॒हम् । रुश॑न्तम् । ग्रा॒भम् । त॒नू॒ऽदूषि॑म् । अप॑ । ऊ॒हा॒मि॒ । य: । भ॒द्र: । रो॒च॒न: । तम् । उत् । अ॒चा॒मि॒ ॥१.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमहं रुशन्तंग्राभं तनूदूषिमपोहामि। यो भद्रो रोचनस्तमुदचामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । अहम् । रुशन्तम् । ग्राभम् । तनूऽदूषिम् । अप । ऊहामि । य: । भद्र: । रोचन: । तम् । उत् । अचामि ॥१.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (इदम्) अब [गृहस्थहोने पर] (अहम्) मैं [स्त्री वा पुरुष] (रुशन्तम्) सतानेवाले, (तनूदूषिम्) शरीरको दोष लगानेवाले (ग्राभम्) ग्राही [मलबन्धक रोग वा दुष्ट व्यवहार] को (अपऊहामि) हटा देता हूँ। (यः) जो (भद्रः) मङ्गलमय, (रोचनः) रोचक व्यवहार है, (तम्)उसको (उत्) उत्तमता से (अचामि) प्राप्त होता हूँ ॥३८॥

    भावार्थ

    वधू-वर पीडाप्रद, रोगकारक कर्म और स्वभाव छोड़कर स्वास्थ्यवर्धक व्यवहार करके गृहाश्रम में आनन्दबढ़ावें ॥३८॥

    टिप्पणी

    ३८−(इदम्) इदानीम्। गृहाश्रमग्रहणसमये (रुशन्तम्) रुश हिंसायां शतृ।हिंसन्तम् (ग्राभम्) मलबन्धकग्राहिरोगं दुष्टव्यवहारं वा (तनूदूषिम्) शरीरदूषकम् (अपोहामि) अपगमयामि (यः) (भद्रः) मङ्गलमयः (रोचनः) रुचिरो व्यवहारः (तम्)व्यवहारम् (उत्) उत्तमतया (अचामि) अचु गतौ याचने च। प्राप्नोमि। याचे ॥

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    विषय

    नीरोगता व शुभ व्यवहार

    पदार्थ

    १. (इदम्) = [इदानीम्] अब प्रभु की उपासना के अन्तर (अहम्) = मैं (रुशन्तम्) = नष्ट करनेवाले, (तनूषिम्) = शरीर को दूषित करनेवाले, (ग्राभम्) = शरीर को पकड़ लेनेवाले [जकड़ लेनेवाले] रोग को (अप ऊहामि) = शरीर से दूर करता हूँ। प्रभु की उपासना रेत:कणों के रक्षण के द्वारा हमें नीरोग बनाती है। २. रोगों को दूर करके (यः भद्रः रोचन:) = जो कल्याण व सुख देनेवाला, जीवन को दीप्त बनानेवाला व्यवहार है, (तम् उदचामि) = उसे उत्कर्षेण प्राप्त होता हूँ।

    भावार्थ

    हम नीरोग बनकर कल्याण करनेवाले यशस्वी व्यवहारों में प्रवृत्त हों।

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    भाषार्थ

    (इदम्) अब या यहीं (अहम्) मैं (रुशन्तम्) हिंसाकारी (तनूदूषिम्) और शरीर को दूषित करने वाले (ग्राभम्) कुकामरूपी ग्राह को (अपोहामि) त्याग देता हूं, (यः) और जो (भद्रः) सुखकारी और कल्याणकारी (रोचनः) और शरीर की कान्ति या दीप्ति करने वाला (ग्राहः) ग्राह है (तम्) उसे (उद् अचामि) उत्कृष्ट हो कर प्राप्त होता हूं।

    टिप्पणी

    [रुशन्तम्= रुश हिंसायाम्। तनूदूषिम्=यथा (अथर्व० १६।१।७)। ग्राभम्=ग्राह=पकड़ लेने वाला, नक्र, नाका, मगरमच्छ। हृग्रहोर्भः छन्दसि (वार्तिक ८।२।३२) द्वारा “ह" की “भ" हुआ। भद्रम्=भद् कल्याणे सुखे च] व्याख्या—काम१ भाव को सर्वथा त्याग देने से गृहस्थधर्म का पालन नहीं हो सकता। परन्तु काम के उग्ररूप में गृहस्थ धर्म अधर्म में परिणत हो जाता है। अतः गृहस्थ धर्म के पालन के लिए न तो काम उग्ररूप में होना चाहिये, और न इस का सर्वथा त्याग ही। मन्त्र में उग्र-काम को ग्राह कहा है। ग्राह है नक्र या नाका। जैसे नाका प्राणी को पकड़ कर उस का विनाश कर देता है, वैसे उग्रकाम भी विनाशक है, हिंस्र है, हिंसाकारी है। तथा शरीर को दूषित कर देता है। परन्तु गृहस्थधर्मोपयोगी काम का श्रेयरूप भी है। इसे भद्र और रोचन कहा है। सद्गृहस्थी इस श्रेयरूप वाले काम को स्वीकार करे। परन्तु यह भद्र ग्राह भी है ग्राहरूप। इसी लिये सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति ब्रह्मचर्य से ही सन्यास ग्रहण कर श्रेयरूप काम का भी त्याग ही करते हैं। श्रेयरूप ग्राह भी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के ह्रास में कारण होता है। परन्तु श्रेयरूप काम का स्वीकार करना भी तब तक सम्भव नहीं जब तक कि मनुष्य उच्च तथा उत्कृष्ट भावनाओं का अवलम्ब नहीं लेता। मन की उत्कृष्टावस्था के विना काम का श्रेयरूप होना असम्भव हे। इस भाव को मन्त्र में “उद्-अचामि" द्वारा प्रकट किया है।] [१. काम आदि अग्नियों के लिए देखो, अथर्व० (१६।१।१-१३)।]

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    विषय

    प्रेय और श्रेय

    शब्दार्थ

    (अहम्) मैं (इदम् रुशन्तम्) इस चमकीले-भड़कीले (तनूदूषिम्) शरीर को दूषित करनेवाले (ग्राभम्) संसार-ग्राह को (अप ऊहामि) छोड़ता हूँ, त्यागता हूँ और (यः भद्रः) जो सुखकर तथा कल्याणमय तथा (रोचन:) सुन्दर, कान्तिमय है (तम्) उसको (उत्) उत्कृष्ट जीवनवाला होकर (अचामि) प्राप्त होता हूँ ।

    भावार्थ

    जीवन के दो मार्ग हैं-प्रेय और श्रेय । मन्त्र में इन दोनों मार्गों का सुन्दर निरूपण है । १. मन्त्र में संसार की उपमा ग्राह=मगर से दी गई है। यह संसाररूपी ग्राह बहुत ही चमकीला और भड़कीला है । अपनी चमक और दमक से यह लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । २. जो मनुष्य इस ग्राह की ओर आकर्षित हो जाते हैं उनका शरीर दूषित हो जाता है - ‘भोगे रोगभयम्’ (भर्तृ० वै० ३२ ) – भोग का परिणाम रोग स्वाभाविक है । ३. रुश् का अर्थ हिंसा भी है । भोगी संसार-ग्राह के ग्रास बनकर नष्ट-भ्रष्ट और समाप्त हो जाते हैं। यह है प्रेय-मार्ग का वर्णन । मन्त्र के उत्तरार्द्ध में श्रेय-मार्ग का वर्णन है । १. परमात्मा भद्र और कल्याणकारी है। उसे प्राप्त करने के लिए संसार-ग्राह को त्यागना चाहिए। संसार को छोड़ने की आवश्यकता नहीं, उसे ग्राह मत बनने दो । २. अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाना चाहिए । ३. शान्त, सदाचारी, तपस्वी और जितेन्द्रिय व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (इदम्) यह (अहम्) मैं (रुशन्तं) नाश करने वाले, (तनुदूषिम्) शरीर के दूषित करने वाले और (ग्राभं) शरीर को जकड़ने वाले रोग को (अप् ऊहामि) शरीर से दूर करता हूं। और (यः) जो (भद्रः) सुखकारी (रोचनः) सुन्दर वर्ण है (तम्) उसको (उद् अचामि) ऊपर छिड़कता हूं। वर वधू के उबटन आदि से शरीर के मेल को दूर करें और उत्तम शरीर वर्ण करने के पदार्थों का उपयोग करें।

    टिप्पणी

    ‘तनुदूषिमधिनुद्रामि’ (तृ० च०) ‘यः शिवो भद्रो रोचनस्तेनत्वामपिनुदामि’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Here and now I give up and cast away whatever is injurious, infectious, defiling and overpowering with seizure of limbs and impairment of faculties and take on to whatever is good and exhilarating for the health and lustre of body and mind. (For further reference: Atharva, 16, 1, 1-13.)

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    Translation

    Now I throw away the injurious (waters), causing seizure and spoiling the body. What is good and sparkling, that (water), I take up.

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    Translation

    I drive away that disease which is fatal, which is injurious to body's health and which holds fast the limbs and joints, Whatever is sparkling and bringing happiness I bring nearer.

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    Translation

    On entering domestic life I give up guilty conduct, harmful, and injurious to health, and follow that which is auspicious, and agreeable.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३८−(इदम्) इदानीम्। गृहाश्रमग्रहणसमये (रुशन्तम्) रुश हिंसायां शतृ।हिंसन्तम् (ग्राभम्) मलबन्धकग्राहिरोगं दुष्टव्यवहारं वा (तनूदूषिम्) शरीरदूषकम् (अपोहामि) अपगमयामि (यः) (भद्रः) मङ्गलमयः (रोचनः) रुचिरो व्यवहारः (तम्)व्यवहारम् (उत्) उत्तमतया (अचामि) अचु गतौ याचने च। प्राप्नोमि। याचे ॥

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