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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    द्वे ते॑ च॒क्रेसूर्ये॑ ब्र॒ह्माण॑ ऋतु॒था वि॑दुः। अथैकं॑ च॒क्रं यद्गुहा॒ तद॑द्धा॒तय॒इद्वि॒दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वे इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । सूर्ये॑ । ब्र॒ह्माण॑: । ऋ॒तु॒ऽथा । वि॒दु॒: । अथ॑ । एक॑म् । च॒क्रम् । यत् । गुहा॑ । तत् । अ॒ध्दातय॑: । इत् । वि॒दु: ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वे ते चक्रेसूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः। अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातयइद्विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वे इति । ते । चक्रे इति । सूर्ये । ब्रह्माण: । ऋतुऽथा । विदु: । अथ । एकम् । चक्रम् । यत् । गुहा । तत् । अध्दातय: । इत् । विदु: ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्ये) हे प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक समान तेजवाली] कन्या ! (ते) तेरे (द्वे) दो [कर्म औरउपासना रूप] (चक्रे) पहियों को (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानी लोग (ऋतुथा) सब ऋतुओंमें (विदुः) जानते हैं। (अथ) और (एकम्) एक [ज्ञानरूप] (चक्रम्) पहिया (यत्) जो (गुहा) हृदय में है, (तत्) उस को (अद्धातयः) सत्य ज्ञानवाले पुरुष (इत्) हि (विदुः) जानते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    वेदवेत्री कन्या औरवेदवेत्ता वर के कर्म, उपासना, ज्ञान की योग्यता को विद्वान् लोग विचारें। पीछेमन्त्र १४ देखो ॥१६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।१६ ॥

    टिप्पणी

    १६−(द्वे) (ते) तव (चक्रे) कर्मोपासनारूपे रथाङ्गे (सूर्ये) हे प्रेरिके कन्ये (ब्रह्माणः)ब्रह्मज्ञानिनः (ऋतुथा) ऋतुषु (विदुः) जानन्ति (अथ) अनन्तरम् (एकम्) ज्ञानरूपम् (चक्रम्) (यत्) (गुहा) गुहायाम्। हृदये (तत्) (अद्धातयः) अद्धा सत्यनाम निघ०३।११+अत सातत्यगमने-इन्। सत्यज्ञानिनः। मेधाविनः निघ० ३।१६। (इत्) एव (विदुः) ॥

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    विषय

    प्रथम चक्र तथा पिछले दो चक्र

    पदार्थ

    १. हे (सूर्य) = सूर्य के अनुकूल व्रतवाली कन्ये। (ते) = तेरे विषय में (द्वे चक्रे) = लगनेवाले दो चक्रों को तो (ब्रह्माण:) = सब ज्ञानी पुरुष (ऋतुथा विदः) = उस-उस समय के अनुसार जानते ही है। दहेज लेने के लिए आनेवाला चक्र और विवाह के लिए आनेवाला चक्र तो सबको पता लगता ही है। २. (अथ) = परन्तु (एकं चक्रम्) = पहला चक्र जबकि वरपक्ष के व्यक्ति पूछताछ के लिए अपने किसी मित्र के यहाँ आकर ठहरे, (गुहा) = जो चक्र संवृत-सा है, (तत्) = उस चक्र को तो (अद्धातयः इत्) = उस चक्र के ज्ञाता ही, अर्थात् उस चक्र में भाग लेनेवाले ही (विदुः) = जानते हैं। वर के माता पिता व उनके स्थानीय मित्र, जिनके यहाँ वे आकर ठहरते हैं, ही उस चक्र को जानते हैं। यह पूछताछ संवृत रूप में कर लेना ही व्यावहारिक दृष्टिकोण से ठीक है। 'अजी, वहाँ क्या बात ठहरी', इसप्रकार की चर्चाओं का न होना ही ठीक है।

    विशेष

    विवाह-प्रसङ्ग में सर्वप्रथम जानकारी के लिए लगाया गया चक्र गुप्त ही होता है। पिछले दो दहेज तथा विवाह के लिए लगाये जानेवाले चक्र तो सबको ज्ञात होते ही हैं।

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    भाषार्थ

    (ते) उन प्रसिद्ध (द्वे) दो (चक्रे) चक्रों को (ब्रह्माणः) वेदवेत्ता (सूर्ये) सूर्य में, (ऋतुथा) वसन्त ऋतु के अनुसार (विदुः) जानते हैं, (अथ) और (एकम्, चक्रम्) एक चक्र (यद्) जो कि (गुहा) घर में अज्ञात रूप में होता है (तद्) उसे (अद्धातयः, इत्) सतत सत्यानुगामी विद्वान् ही (विदुः) जानते हैं।

    टिप्पणी

    [ते="तद्" का द्वितीया विभक्ति का द्विवचन, नपुंसकलिङ्ग। सूर्ये="सूर्य" का सप्तम्येक वचन। अद्धातयः= अद्धा सत्यनाम (निघं० ३।१०)+अत् (सततगमने)‌ ब्रह्माणः, ब्रह्म=ईश्वरः, "वेदः" तत्त्व, तपो वा (उणा० ४।१४७) महर्षि दयानन्द। अथवा ब्रह्मवेद=अथर्ववेद। मन्त्र १४ में त्रिचक्र का वर्णन है। मन्त्र १६ में उन तीन चक्रों का विभाग दर्शाया है कि दो चक्र तो सूर्य में हैं, और एक चक्र गुहा में है, अर्थात् गुफा में स्थित अज्ञात वस्तु के सदृश अज्ञातरूप है। सूर्य में दो चक्र स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। (१) एक दैनिक गति का चक्र अर्थात् चक्कर, पूर्व से पश्चिम तथा पश्चिम से पुनः पूर्व तक। यह दिन रात की ऋतु का निर्माण करता है। (२) दूसरा चक्र अर्थात् चक्कर है उत्तरायण सीमान्त से दक्षिणायन सीमान्त, और दक्षिणायन सीमान्त से पुनः उत्तरायण सीमान्त तक। यह दूसरा चक्र=चक्कर, ऋतुओं का निर्माण करता है। मन्त्र में 'ऋतुथा" शब्द द्वारा वसन्त ऋतु का ग्रहण है। सूर्य दक्षिणायन से लौट कर जब भूमध्य रेखा पर आता है तब वसन्त ऋतु यौवन में होती है। मन्त्र १३ के अनुसार विवाह फाल्गुन में होना चाहिये, और फाल्गुन के प्रारम्भ के लगभग वसन्तु-ऋतु का प्रारम्भ हो जाता है। इस लिये "ऋतुथा" शब्द द्वारा सूर्या के ऋतुधर्म का सम्बन्ध मन्त्र में अभिप्रेत नहीं प्रतीत होता। विवाह के इन मन्त्रों में द्योः१ और पृथिवी का वर-और-वधू के रूप में सम्बन्ध दर्शाया है। यथा मकर अथर्वः [१४।२।७१] द्यौः१ अर्थात् सूर्य में स्थित दो चक्रों का वर्णन मन्त्र के पूर्वार्ध में हुआ है। उत्तरार्ध में पृथिवी के एक चक्र का वर्णन है जिसे कि गुहा पद द्वारा अज्ञात स्वरूप दर्शाया है। पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है। यह पृथिवी का चक्र है। पृथिवीस्थ प्राणियों को पृथिवी का यह चक्र अनुभूयमान नहीं होता। अतः इस चक्र का वर्णन "यद् गुहा" द्वारा हुआ है। सूर्यारूपी पृथिवी का यह एक चक्र या परिक्रमा है। सूर्य मानो पृथिवी की ऋतुओं के सम्बन्ध में दो परिक्रमायें करता है, और पृथिवी सूर्य की एक परिक्रमा करती है। यह वर्णन यथादृष्ट तथा यथानुभूत वर्णन है। वैदिक सिद्धान्त में पृथिवी ही सूर्य की परिक्रमा करती है, सूर्य पृथिवी की परिक्रमा नहीं करता। यथाः- आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन् मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑॥६॥ (यजु० ३।६)।][१. मन्त्र में द्यौः द्वारा सूर्य अभिप्रेत है, न कि द्युलोक सौरमण्डल में सूर्य और पृथिवी का परस्पर सम्बन्ध वर-वधू के रूप में प्रकट किया है, न कि द्युलोक और पृथिवी का। सूर्य को द्यौः कहा है "द्यौतनात्"। द्योतन के कारण; द्यौः का अर्थ अन्तरिक्ष भी है (उणा० २।६८) महर्षि दयानन्द।] अथवा [(सूर्ये) हे सूर्या ब्रह्मचारिणी ! (ते) तेरे (द्वे) दो (चक्रे) चक्कर अर्थात् परिक्रमायें (ब्रह्माणः) वेदवेत्ता विद्वान् (ऋतुथा) वसन्त ऋतु के विवाहानुसार (विदुः) जानते हैं। (अथ) तथा (एकम्) एक (चक्रम्) चक्कर अर्थात् परिक्रमा (यद्) जो कि (गुहा) अज्ञात सी होती है, (तत्) उसे (अद्धातयः) सतत सत्यानुगामी विद्वान् ही (विदुः) जानते हैं।] [व्याख्या— मन्त्र द्वारा प्रतीत होता है कि सूर्या के विवाह के समय सूर्या दो परिक्रमाएं करती है विवाहमण्डप में, जहां कि विवाह में निमन्त्रित देव-देवियां बैठी होती हैं। और सूर्या एक परिक्रमा करती है, घर के भीतर। इस परिक्रमा के साक्षी सत्यमय जीवनों वाले विद्वान् ही होते हैं, सर्व साधारण निमन्त्रित व्यक्ति नहीं। घर के भीतर हुई इस परिक्रमा के सम्बन्ध में "गुहा" शब्द का प्रयोग हुआ है। ऐसी ही वैदिक विधि मन्त्र द्वारा प्रतीत होती हैं। सूर्या की दो मण्डप-परिक्रमाओं और एक गुहा-परिक्रमा के साथ साथ वर भी परिक्रमाएं करता है। इन तीन परिक्रमाओं का निर्देश "त्रिचक्रेण वहतुं सूर्यायाः" द्वारा हुआ है (अथर्व० १४।१।१४)। अथवा सूर्य अर्थात् वर की, विवाह मण्डप में, दो परिक्रमाओं के साथ सूर्या भी, तथा सूर्या की एक गुहा परिक्रमा के साथ वर भी परिक्रमा करता है। इन मन्त्रों द्वारा परिक्रमाओं का स्वरूप ऐसा ही प्रतीत होता है, चाहे पद्धतिकारों ने इन परिक्रमाओं के स्वरूप भिन्न प्रकार के कहे हैं। पद्धतिकारों ने भी विवाह की विधियां दो प्रकार की कही हैं। कुछ विधियां तो वधू के घर में होती हैं, और कुछ विवाहमण्डप या सभामण्डप में होती हैं। घर में होने वाली विधियों को गुहा-विधियां कह सकते हैं, जिन में कि, मन्त्रनिर्देशानुसार, सूर्या की एक परिक्रमा भी गुहा-परिक्रमा है]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे (सूर्य) सूर्ये ! सौभाग्यवति कन्ये ! (ते) तेरे मनरूप रथ के (द्वे चक्रे) श्रोत्र या कान रूप दोनों चक्रों को (ब्रह्मणः) ब्रह्म के जानने वाले वेदज्ञ विद्वान्। (ऋतुथा) ऋतुकाल के अवसर पर (विदुः) भली प्रकार जानते हैं। (अथ) और (एकचक्रम्) एक चक्र (यत्) जो (गुहा) गुहा में, हृदय के भीतर छिपा है (तत्) उसको भी (अद्धातय इत्) विद्वान् लोग ही (विदुः) जानते हैं। कन्या की अभिलाषा वर-प्राप्ति की होती है, वह अपने कानों से योग्य वरों की कथा श्रवण करती है और चित्त, से योग्य वर को गुणती है। दोनों कान और चित्त ये तीन चक्र हैं जिनसे वह मनोरथ रूप रथ पर चढ़कर पति को प्राप्त करती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O Surya, bride of the new home, the sages of knowledge know the two wheels of your life’s chariot according to the seasons, i.e., your words and actions according to your moods and circumstances. The third, thought, reflection and intention, is hidden in the depths of the mind which only exceptional master minds know. And that one is a mystery.

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    Translation

    O bride, the learned persons in their season know your two chariot wheels (the sun and moon); the other third wheel (the year) which is concealed, is known to those wise only who are aware of the highest truth. (Rg. X.85.16)

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    Translation

    The men of sharp understanding know these two wheels (the sun and moon) of Surya according to seasons. What that one wheel (the year) hidden is known indeed by those who know time.

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    Translation

    O bride, two wheels of thy mental chariot the learned know at all seasons. The one wheel which is hidden is known only to those who possess the highest truths.

    Footnote

    Two wheels: Karma (Action), Upasna (contemplation). One wheel: Jnana (Knowledge) See Rig, 10-85-16.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(द्वे) (ते) तव (चक्रे) कर्मोपासनारूपे रथाङ्गे (सूर्ये) हे प्रेरिके कन्ये (ब्रह्माणः)ब्रह्मज्ञानिनः (ऋतुथा) ऋतुषु (विदुः) जानन्ति (अथ) अनन्तरम् (एकम्) ज्ञानरूपम् (चक्रम्) (यत्) (गुहा) गुहायाम्। हृदये (तत्) (अद्धातयः) अद्धा सत्यनाम निघ०३।११+अत सातत्यगमने-इन्। सत्यज्ञानिनः। मेधाविनः निघ० ३।१६। (इत्) एव (विदुः) ॥

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