अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
ऋषिः - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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भग॑स्ततक्षच॒तुरः॒ पादा॒न्भग॑स्ततक्ष च॒त्वार्युष्प॑लानि। त्वष्टा॑ पिपेश मध्य॒तोऽनु॒वर्ध्रा॒न्त्सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥
स्वर सहित पद पाठभग॑: । त॒त॒क्ष॒ । च॒तुर॑: । पादा॑न् । भग॑: । त॒त॒क्ष॒ । च॒त्वारि॑ । उष्प॑लानि । त्वष्टा॑ । पि॒पे॒श॒ । म॒ध्य॒त: । अनु॑ । वर्ध्रा॑न् । सा । न॒: । अ॒स्तु॒ । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली ॥१.६०॥
स्वर रहित मन्त्र
भगस्ततक्षचतुरः पादान्भगस्ततक्ष चत्वार्युष्पलानि। त्वष्टा पिपेश मध्यतोऽनुवर्ध्रान्त्सा नो अस्तु सुमङ्गली ॥
स्वर रहित पद पाठभग: । ततक्ष । चतुर: । पादान् । भग: । ततक्ष । चत्वारि । उष्पलानि । त्वष्टा । पिपेश । मध्यत: । अनु । वर्ध्रान् । सा । न: । अस्तु । सुऽमङ्गली ॥१.६०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(भगः) भगवान् [ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] ने (चतुरः) चार [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप] (पादान्)प्राप्तियोग्य पदार्थ (ततक्ष) रचे हैं, (भगः) भगवान् ने (चत्वारि) चार [ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम रूप] (उष्पलानि) हिंसा सेबचानेवाले कर्म (ततक्ष) बनाये हैं। (त्वष्टा) विश्वकर्मा [परमेश्वर] ने (मध्यतः)बीच में [स्त्री-पुरुषों के भीतर] (वर्ध्रान्) वृद्धिव्यवहारों की (अनु) अनुकूल (पिपेश) व्यवस्था की है, (सा) वह [वधू] (नः) हमारेलिये (सुमङ्गली) सुमङ्गली [बड़ी आनन्द देनेवाली] (अस्तु) होवे ॥६०॥
भावार्थ
परमेश्वर ने वेदोंद्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और उनके साधन ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों का उपदेश करके संसार के उपकार के लिये स्त्री-पुरुषों को ज्ञान और बुद्धि रूप वृद्धि कासामर्थ्य दिया है ॥६०॥
टिप्पणी
६०−(भगः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ततक्ष) रचितवान् (चतुरः)चतुःसंख्याकान् धर्मार्थकाममोक्षान् (पादान्) प्राप्तव्यान् पदार्थान् (भगः) (ततक्ष) (चत्वारि) चतुःसंख्याकानि ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमरूपाणि (उष्पलानि) उष दाहे हिंसायां च-क्विप्+पल रक्षणे-अच्। उषो हिंसनाद् रक्षककर्माणि (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वरः (पिपेश) पिश अवयवे व्यवस्थायां च।व्यवस्थापितवान् (मध्यतः) स्त्रीपुरुषयोर्मनसि (अनु) अनुकूलम् (वर्द्ध्रान्)वृधिवपिभ्यां रन्। उ० २।२७। वृधु वृद्धौ-रन्। वृद्धिव्यवहारान् (सा) वधूः (नः)अस्मभ्यम् (अस्तु) (सुमङ्गली) अत्यन्तसुखदायिनी ॥
विषय
चतुरः पादान् चत्वारि आयुष्पलानि
पदार्थ
१. (भगः) = उस भजनीय प्रभु ने हमारे लिए (चतुरः पादान्) = चार 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष' रूप गन्तव्य पुरुषार्थों को (ततक्ष) = बनाया है। हमने केवल 'अर्थ-काम' मैं आसक्त नहीं होना। धर्म व मोक्ष से सुरक्षित अर्थ-काम ही पुरुषार्थ हैं। उनके न रहने पर तो ये व्यर्थ ही हो जाते हैं। धर्मपूर्वक अर्थ व काम होंगे तो ये मोक्ष के साधक बनेंगे। भगः-इस भजनीय प्रभु ने (चत्वारि) = चार-स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दानरूप कर्मों को (उष्पलानि) = [उष दाहे, पल रक्षणे] कामाग्नि में दग्ध हो जाने से रक्षण करनेवाला (ततक्ष) = बनाया है। स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दानरूप धर्मों में प्रवृत्त होने पर हम कामाग्नि से दग्ध होने से बचे रहेंगे। २. (त्वष्टा) = वह ज्ञानदीप्त निर्माता [त्विष् त] प्रभु (मध्यता) = इस गृहस्थरूप जीवन के माध्यन्दिन सवन में (अनु वर्ध्रान्) = अनुकूल संयम रज्जुओं को (पिपेश) = हमारे लिए निर्मित करता है। यहाँ संयमी जीवनवाले पुरुषों से युक्त गृहस्थ में (सा) = वह नववधू (न:) = हमारे लिए (सुमंगली अस्तु) = उत्तम मंगलों को सिद्ध करनेवाली हो। वासनामय जीवन होने पर पत्नी घर को मंगलमय नहीं बना सकती।
भावार्थ
'प्रभु ने धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष' इन चार पुरुषार्थों को हमारे लिए गन्तव्य मार्ग के रूप में नियत किया है। गृहस्थ में कामाग्नि में दग्ध हो जाने से रक्षण के लिए 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' इन सुकृतों का स्थापन किया है। गृहस्थ में भी व्रतरूप संयम-रजुओं से हमें बाँधा है। ऐसे घर में पत्नी सुमंगली होती है।
भाषार्थ
(भगः) समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, और वैराग्य से सम्पन्न परमेश्वर ने (चतुरः) पुरुषार्थ के चार (पादान्) पादों को (ततक्ष) निर्मित किया है, (भगः) उसी परमेश्वर ने (चत्वारि, उष्पलानि) जीवन के चार पलों को (ततक्ष) निर्मित किया है। (त्वष्टा) रूप भरने वाले कारीगर परमेश्वर ने (मध्यतः) बीच बीच में (अनु) लगातार (वर्ध्रान्) दृढ़ बन्धनों को (पिपेश) रूप दिया है, अर्थात् जीवन में सुन्दर सुन्दर बन्धन लगा दिये हैं। (सा) वह पत्नी (नः) हमारे लिये (सु मङ्गली) उत्तम मङ्गलमयी (अस्तु) हो।
टिप्पणी
[ततक्ष = त्वक्ष तनुकरणे। त्वक्षा का अर्थ है बढ़ई। बढ़ई लकड़ी को काट कर, उसे तनूकृत कर के कुर्सी आदि का निर्माण करता है। मन्त्र में ततक्ष शब्द द्वारा केवल निर्माण अर्थ अभिप्रेत है। उष्पलानि = वस् + क्विप् + पलानि = उस् + पलानि (वचिस्वपियजादीनां किति, अष्टा० ६।१।१५) द्वारा वस् (निवासे) के "व" को "उ" सम्प्रसारण हुआ। तदनन्तर (शासिवसिघसीनां च, अष्टा० ८।३।६० द्वारा "उस्" के "स्" का "ष्" हुआ। अतः उष् (निवास)। उष्पलानि = निवास के पल। त्वष्टा = रूपकृत। यथा “य इमे द्यावापृथिवी जनित्री रूपैरपिंशद् भुवनानि विश्वा। तमद्य होतरिषतो यजीयान् देवं त्वष्टारमिह यक्षि विद्वान्" (ऋ० १०।११०।९)। वर्ध्रान् = वर्ध्र Aleather, strap (आप्टे)। पिपेश= पिश् अवयवे। पेश रूपनाम (निघं० ३।७)] [व्याख्या- पूर्व के मन्त्रों में भग द्वारा, छः ऐश्वर्य आदि गुणों से सम्पन्न वर या पति का ग्रहण हुआ है [मन्त्र २०, ५१,५९], परन्तु इस मन्त्र में भग द्वारा भगवान परमेश्वर का वर्णन है। परमेश्वर ने पुरुषार्थ के चार पाद निश्चित किये हैं, - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। परमेश्वर ने जीवन के भी चार भाग निश्चित किये हैं, - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ये चार आश्रम हैं। इसी रचयिता कारीगर ने जीवनयात्रा में सुन्दर सुन्दर बन्धनों की भी रचना कर रखी हैं। जो इन बन्धनों में फंस गया वह जीवनयात्रा के लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है। पत्नी यदि इस यात्रा के लिए सुमङ्गली हो, गृह्य मंगलकार्यो का सम्पादन करनेवाली हो तो पति-पत्नी दोनों अपनी जीवनयात्रा में सफल हो सकते हैं। मन्त्र में जीवनसम्बन्धी प्रत्येक आश्रम को पल कहा है। चार आश्रम जीवन के चार पल हैं। जो व्यक्ति किसी आश्रम में भी रहते हुए यह समझ लेते हैं कि "समय पर्याप्त" है; और अपने कर्तव्यों में प्रमादी हो जाते हैं वे अपने आश्रमजीवन में सफलता से वञ्चित हो जाते हैं। मृत्यु न जाने कब आ घेरे। तभी कहा है कि ''गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्"। वस्तुतः जीवन को पल सदृश क्षणिक जानकर निज कर्त्तव्यों को नियतकाल के अनुसार करते रहना चाहिये।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(भगः) ऐश्वर्यवान् पुरुष इस पलंग के (चतुरः पादान्) चारों पैरों को (ततक्ष) गढ़ता या गढ़वाता है और (भगः) ऐश्वर्यवान् पुरुष ही (चत्वारि) चार (उष्पलानि-उत्पदानि) पायों पर लगने वाले दण्डों को (ततक्ष) बनवाता है। (त्वष्टा) शिल्पी पुरुष (मध्यतः अनु) बीच के (वर्ध्राम्) रस्सियों को (पिपेश) सुन्दर सुन्दर बनाता है। (सा) वह नववधू (सुमङ्गली) शुभ मङ्गल वस्त्र धारण करती हुई (नः) हमारे सौभाग्य के लिये (अस्तु) हो।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘चत्वार्यत्पदानि’ (तृ०) ‘मध्यतो वरधासू’ इति पैप्प सं०। ‘उष्पलानि’ इति ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Bhaga, lord sustainer and ordainer of life, has framed the value orders of life: Dharma, Artha, Kama and Moksha; four social orders: Brahmana, Kshatriya, Vaishya and Shudra; four stages of personal life: Brahmacharya, Grhastha, Vanaprastha and Sanyasa. Tvashta, lord maker and organiser of life, has placed the woman as partner of man in matrimony in this order and organisation. May the bride be good and auspicious for us.
Translation
The Lord of good fortune (Bhaga) has fashioned the four feet (of the litter): the Lord of good fortune has wrought the four Pieces (of the frame). The cosmic architect: (Tvastr) has adomed the Straps in the middle. May she be very auspicious for us.
Translation
Bhaga, the strong man makes the four legs of the litter and words out four pieces composing frame-work, the carpenter decks the straps that go across it, let the bride sitting it be blessed with auspiciousness.
Translation
God hath fashioned four desirable objects. God hath formed four Ashramas for saving us from violence. God hath shaped mutual relations between husband and wife for their favorable acts of progress and development. May the bride be a source of happiness for us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६०−(भगः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (ततक्ष) रचितवान् (चतुरः)चतुःसंख्याकान् धर्मार्थकाममोक्षान् (पादान्) प्राप्तव्यान् पदार्थान् (भगः) (ततक्ष) (चत्वारि) चतुःसंख्याकानि ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमरूपाणि (उष्पलानि) उष दाहे हिंसायां च-क्विप्+पल रक्षणे-अच्। उषो हिंसनाद् रक्षककर्माणि (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वरः (पिपेश) पिश अवयवे व्यवस्थायां च।व्यवस्थापितवान् (मध्यतः) स्त्रीपुरुषयोर्मनसि (अनु) अनुकूलम् (वर्द्ध्रान्)वृधिवपिभ्यां रन्। उ० २।२७। वृधु वृद्धौ-रन्। वृद्धिव्यवहारान् (सा) वधूः (नः)अस्मभ्यम् (अस्तु) (सुमङ्गली) अत्यन्तसुखदायिनी ॥
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