अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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प्रेतोमु॑ञ्चामि॒ नामुतः॑ सुब॒द्धाम॒मुत॑स्करम्। यथे॒यमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रासु॒भगास॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । इ॒त: । मु॒ञ्चा॒मि॒ । न । अ॒मुत॑: । सु॒ऽब॒ध्दाम् । अ॒मुत॑: । क॒र॒म् । यथा॑ । इ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । मी॒ढ्व॒: । सु॒ऽपु॒त्रा: । सु॒ऽभगा॑ । अस॑ति ॥१.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेतोमुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। यथेयमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रासुभगासति ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । इत: । मुञ्चामि । न । अमुत: । सुऽबध्दाम् । अमुत: । करम् । यथा । इयम् । इन्द्र । मीढ्व: । सुऽपुत्रा: । सुऽभगा । असति ॥१.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(इतः) इस [वियोगपाश]से [इस वधू को] (प्र मुञ्चामि) मैं [वर] अच्छे प्रकार छुड़ाताहूँ, (अमुतः) उस [प्रेमपाश] से (न) नहीं [छुड़ाता], (अमुतः) उस [प्रेमपाश] में [इस वधू] को (सुबद्धाम्) अच्छे बन्धनयुक्त (करम्) मैं करता हूँ। (यथा) जिस से (मीढ्वः) हेसुख की वर्षा करनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवाले परमात्मन् ! (इयम्) यह [वधू] (सुपुत्रा) सुन्दर पुत्रोंवाली और (सुभगा) बड़े ऐश्वर्यवाली (असति) होवे ॥१८॥
भावार्थ
वधू-वर को चाहिये किआपस में बड़े प्रेम का बरताव करें, और परमात्मा की उपासना करके प्रयत्नपूर्वकघर में श्रेष्ठ सन्तान और ऐश्वर्य प्राप्त करके दोनों आनन्दित रहें ॥१८॥मन्त्र१८, १९ ऋग्वेद में कुछ भेद से हैं−१०।८५।२५, २४ और दोनों मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृत हैं और विनियोग इस प्रकार है कि वर इनदोनों मन्त्रों को बोलकर वधू के बँधे हुए केशों को छोड़े ॥
टिप्पणी
१८−(प्र) प्रकर्षेण (इतः) अस्मात्। वियोगपाशात् (मुञ्चामि) मोचयामि (नः) निषेधे (अमुतः) तस्मात्।प्रेमपाशात् (सुबद्धाम्) सुष्ठु बन्धनयुक्ताम् (अमुतः) तस्मिन्। प्रेमपाशे (करम्) करोमि (यथा) येन प्रकारेण (इयम्) वधूः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन्परमात्मन् ! (मीढ्वः) मिह सेचने-क्वसु। हे सुखवर्षक (सुपुत्रा) शोभनपुत्रयुक्ता (सुभगा) सौभाग्यवती (असति) भवेत् ॥
विषय
वर का व्रतग्रहण
पदार्थ
१. विवाह हो जाने पर [युबक] प्रभु को साक्षी करके व्रत लेता है कि मैं इस युवति को (इत:) = इस पितृगृह से (प्रमुञ्चामि) = मुक्त कर रहा हूँ, (न अमुत:) = उधर से, अर्थात् पतिगृह से कभी मुक्त न करूंगा। मुक्त करना तो दूर रहा, (अमुत: सुबद्धाम् करम्) = उस पतिगृह में इसे सुबद्ध करता हूँ। इसको यही अनुभव होगा कि 'मेरा तो घर यही है, यह पतिगृह ही है, मैं ही तो इस घर की साम्राज्ञी हूँ। २. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले व (मीढ्वः) = सब सुखों का सेचन करनेवाले प्रभो! आप ऐसा अनुग्रह कीजिए कि (यथा) = जिससे (इयम्) = यह युवति वधू (सुपुत्रा) = उत्तम सन्तानोंवाली व (सुभगा) = उत्तम ऐश्वर्यवाली (असति) = हो। यह इस घर को उत्तम सन्तानों व ऐश्वयों से परिपूर्ण करनेवाली बने, सचमुच गृहलक्ष्मी प्रमाणित हो।
भावार्थ
वर का यह व्रत होना चाहिए कि वह अपने प्रेम द्वारा इस वधू को घर में सुबद्ध करे, जिससे घर उत्तम सन्तानों व सौभाग्यों से सम्पन्न हो। जहाँ गृहपत्नी का आदर नहीं, पति पत्नी में परस्पर कलह है,वह घर नरक-सा बन जाता है, वहाँ उत्तम सन्तानों व सौभाग्यों का स्थान नहीं।
भाषार्थ
(इतः) इस पितृगृह से (प्र मुञ्चामि) मैं इस कन्या को छुड़ाता हूं, (अमुतः) उस पतिगृह में (सुबद्धाम्) सुदृढ़ बद्ध (करम्) करता हूं। (यथा) ताकि (मीढ्वः, इन्द्र) हे वीर्यवान् इन्द्र ! अर्थात् वीर्यशक्ति और आत्मिक शक्ति से सम्पन्न हे धर्मपुत्र ! (इयम्) यह कन्या (सुपुत्रा) उत्तम पुत्रों वाली, (सुभगा) सौभाग्यवती (असति) हो।
टिप्पणी
[मीढ्व = मिह् सेचने, वीर्यसेचन में समर्थ] [व्याख्या - मन्त्र में कन्या का पिता निज धर्मपुत्र को विश्वास दिलाता है कि मैं पितृगृह के साथ जुड़े हुए कन्या के प्रेमबन्धनों को ढीला करता हूं ताकि कन्या पतिगृह में स्थिर हो सके। इन्द्र का अर्थ आत्मिक शक्ति से सम्पन्न पति है, और मीढ्वः का अर्थ है "सींचने वाला" या वीर्यशक्ति वाला। इसी दृष्टि से मन्त्र १५ में वर को "पूषा" कहा है। यदि पति वीर्यवान् न हो तो गृहस्थधर्म सफल नहीं हो सकता, तथा पारस्परिक पतिपत्नी सम्बद्ध ढीला पड़ सकता है, और पत्नी सुपुत्रा नहीं हो सकती। सुभगा का अर्थ है उत्तम भगों वाली। भग के ६ अर्थ होते हैं, ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य। गृहस्थ में माता का कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह इन ६ भगों का यथाशक्ति उपार्जन करती रहे, ताकि सन्तानें सुसन्तानें हो सकें।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
मैं कन्या का पिता (इतः) इस पितृकुल से (प्रमुञ्चामि) सर्वथा इस कन्या को पृथक् करता हूं। (अमुतः) दूसरे इस के पति सम्बन्ध से इसको (न प्रमुञ्चामि) कभी अलग न करूं। प्रत्युत (अमुतः) अमुक इस दूर के पति के साथ इसको (सुबद्धाम्) खूब अच्छी प्रकार ग्रन्थिबद्ध (करम्) कर देता हूं। (यथा) जिससे हे (इन्द्र) इन्द्र ! परमेश्वर (इयम्) यह (सुभगा) उत्तम सौभाग्यवाली कन्या (मीढ्वः) वीर्य सेचन में समर्थ पति के साथ रहकर (सुपुत्रा) उत्तम पुत्र वाली (असति) हो।
टिप्पणी
(प्र०) ‘प्रेतो मुञ्चात मामुतः’ इति पैप्प० सं०। (प्र०) ‘मुञ्चाति’ (द्वि०) ‘करत’ इति आप० मन्त्रपाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
I release her, O Indra, virile and youthful groom, from here, not from there where I assign her to be wholly dedicated to her husband’s family so that she may be the proud mother of noble children and the mistress of good fortune and all round prosperity.
Translation
From here I release her completely, not from there. I make her bound securely at that place, so that, O bounteous resplendent Lord, she is blessed with good sons and nuptial bliss.
Translation
I, the father, send you free from hence, the family of mine but not from the family of your husband, O daughter, I also make you fettered there (in the family of husband). May benevolent God make this bride io as the may have fortunes and progenies.
Translation
I set her free from her parental home, but not from that of her husband. I nicely connect her with her husband’s family. O Bounteous God, may she live blest in her fortune and sons!
Footnote
I: The priest Who afficiates at the marriage ceremony. See Rig 10-85-25. Both verses 18th and 19th have been quoted and explained by Maharshi Dayananda in the Sanskar vidhi.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(प्र) प्रकर्षेण (इतः) अस्मात्। वियोगपाशात् (मुञ्चामि) मोचयामि (नः) निषेधे (अमुतः) तस्मात्।प्रेमपाशात् (सुबद्धाम्) सुष्ठु बन्धनयुक्ताम् (अमुतः) तस्मिन्। प्रेमपाशे (करम्) करोमि (यथा) येन प्रकारेण (इयम्) वधूः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन्परमात्मन् ! (मीढ्वः) मिह सेचने-क्वसु। हे सुखवर्षक (सुपुत्रा) शोभनपुत्रयुक्ता (सुभगा) सौभाग्यवती (असति) भवेत् ॥
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