अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
ऋषिः - स्वविवाह
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
0
चित्ति॑राउप॒बर्ह॑णं॒ चक्षु॑रा अ॒भ्यञ्ज॑नम्। द्यौर्भूमिः॒ कोश॒ आसी॒द्यदया॑त्सू॒र्यापति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठचित्ति॑: । आ॒: । उ॒प॒ऽबर्ह॑णम् । चक्षु॑: । आ॒: । अ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । द्यौ: । भूमि॑ । कोश॑: । आ॒सी॒त् । यत् । अया॑त् । सू॒र्या । पति॑म् ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्तिराउपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम्। द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्यापतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठचित्ति: । आ: । उपऽबर्हणम् । चक्षु: । आ: । अभिऽअञ्जनम् । द्यौ: । भूमि । कोश: । आसीत् । यत् । अयात् । सूर्या । पतिम् ॥१.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(चित्तिः) चेतना [कन्या की] (उपबर्हणम्) छोटी ओढ़नी [समान] (आः) होवे, (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्य (अभ्यञ्जनम्) उबटन [शरीर मलने के द्रव्य के तुल्य] (आः) होवे। (द्यौः) आकाश और (भूमिः) भूमि (कोशः) निधिमञ्जूषा [पेटी पिटारी समान] (आसीत्) होवे, (यत्) जब (सूर्या) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (पतिम्) पतिको (अयात्) प्राप्त होवे ॥६॥
भावार्थ
जब कन्या बाहिरीउपकरणों की उपेक्षा करके भीतरी विद्याबल से चेतन्य स्वभाव, और पदार्थों को दिव्यदृष्टि से देखनेवाली, और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने करानेवाली हो, तब सुयोग्य पति से ब्याह करे ॥६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।७ ॥
टिप्पणी
६−(चित्तिः)चेतना। बुद्धिः (आः) बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। अस्तेर्लङि, ईडभावः, तलोपेसकारस्य रुत्वविसर्गौ। आसीत्। छन्दसि। लुङ्लङ्लिटः। पा० ३।४।६। इति लिङर्थेलङ्। स्यात्। एवमन्यत्रापि ज्ञातव्यम्। (उपबर्हणम्) उपवस्त्रं यथा (चक्षुः)दर्शनसामर्थ्यम्। (आः) स्यात् (अभ्यञ्जनम्) शरीरमर्दनद्रव्यं यथा (द्यौः) आकाशः (भूमिः) (कोशः) निधिमञ्जूषा यथा (आसीत्) स्यात् (यत्) यदा (अयात्) याप्रापणे-लङ्। यायात्। प्राप्नुयात् (सूर्या) अ० ९।४।१४। राजसूयसूर्य०। पा०३।१।११४। सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे निपातनात् क्यपि रूपसिद्धिः। सूर्याद् देवतायांचाब् वक्तव्यः। वा० पा० ४।१।४८। इति चाप्। सूर्या वाङ्नाम-निघ० १।११। पदनाम-निघ०५।६। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। पत्नी=विभूतिर्दीप्तिः। प्रेरिका।सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनी कन्या (पतिम्) भर्तारम् ॥
विषय
वास्तविक सम्पत्ति
पदार्थ
१. (यत्) = जब (सूर्या पतिम् अयात्) = साविता की पुत्री-उज्वल ज्ञानवाली यह सूर्या अपने पति के गृह को जाती है उस समय (द्यौः भूमि:) = ज्ञानदीस मस्तिष्क तथा पृथिवी के समान दृढ़ शरीर इसके (कोशः आसीत्) = वास्तविक धन थे। ज्ञान व शक्ति ही इसका कोश था। इस कोश को लेकर ही यह पतिगृह को प्राप्त हुई। २. उस समय चित्तिः ज्ञान व समझदारी (उपबर्हणम् आः) [आसीत्] = इसका सिराहना था। जैसे-सिरहाना सिर को सहारा देता है उसीप्रकार इस कन्या को समझदारी ही इसे समस्याओं के सुलझाने में सहायक होती है। (चक्षुः अभ्यम्जनम् आ:) = इसका ठीक दृष्टिकोण व स्नेहपूर्ण दृष्टि ही सुरमा था। अञ्जन आँख के अभ्यञ्जन, सौन्दर्यवर्धन का कारण होता है। इसीप्रकार इसका ठीक दृष्टिकोण व स्नेहपूर्ण दृष्टि इसके सौन्दर्य को बढ़ानेवाली थी।
भावार्थ
कन्या की योग्यता यह है कि वह समझदार हो [चित्तिः], उसका दृष्टिकोण ठीक हो तथा वह स्नेहपूर्ण दृष्टिवाली हो [चक्षुः]। यह मस्तिष्क के ज्ञान व शरीर के बलरूप कोश को लेकर पतिगृह को प्रास हो।
भाषार्थ
(चित्तिः) सम्यक् ज्ञान (उपबर्हणम्) तकिया (आः) था , (चक्षुः) दृष्टि शक्ति (अभ्यञ्जनम्१) अञ्जन या सुरमा (आः) था, (द्यौः, भूमिः) द्युलोक और भूलोक (कोशः) ज्ञान का खजाना (आसीत्) था, (यत्) जब कि (सूर्या) सूर्या ब्रह्मचारिणी अर्थात् आदित्य ब्रह्मचारिणी (पतिम्) पति को गई या पहुंची।
टिप्पणी
[व्याख्या- उच्चकोटि का विवाह है आदित्य ब्रह्मचारी का आदित्य ब्रह्मचारिणी के साथ। इन मन्त्रों में आदित्य ब्रह्मचारिणी को सूर्या अर्थात् सूर्या ब्रह्मचारिणी कहा है। आदित्य ब्रह्मचारी ४८ वर्षों का ब्रह्मचारी होता है, और आदित्य ब्रह्मचारिणी ३२ या २४ वर्षों की। आदित्य ब्रह्मचारी के लिये मन्त्र संख्या १,२ में आदित्य नाम दिया है। इन दोनों की आयु के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि स्त्री की आयु से वर की आयु, न्यून से न्यून ड्योढ़ी और अधिक से अधिक दूनी होवे" (संस्कार विधि, विवाह प्रकरण)। आजकल के रीति-रिवाज में वधू जब पति के घर जाती है तो वह अपने साथ पर्याप्त दहेज ले कर जाती है। वैदिक दहेज के सम्बन्ध में दर्शाया है कि सूर्या जब पति के घर गई तब वह चित्ति अर्थात् सम्यक् ज्ञान का तकिया, सधी-दृष्टिशक्ति का अंजन अर्थात् सुरमा; तथा द्युलोक और भूलोक के ज्ञानरूपी खजाने को अपने साथ ले कर गई। अभिप्राय यह कि आदर्श विवाह में बाह्य दहेज की कोई आवश्यकता नहीं है। जब उच्चकोटि के पढ़े-लिखे आदित्य ब्रह्मचारी और सूर्या ब्रह्मचारिणी में परस्पर प्रेमपूर्वक विवाह हो तब वधू का असली देहज वधू के सद्गुण, तथा उस की विद्या और सुशीलता आदि ही होते हैं। सम्यक्ज्ञान सिर को पवित्र करता और सिर का आश्रय होता है। इसलिये सम्यक्ज्ञान को विदुषी का तकिया कहा है। इसी प्रकार अञ्जन अर्थात् सुरमे का काम है चक्षु की शक्ति को बनाए रखना। सूर्या ब्रह्मचारिणी में जो दिव्य और विद्यासम्पन्न दृष्टि२ शक्ति होती है वही मानो इस का सुरमा है। तथा द्युलोक और भूलोक का व्यापी ज्ञान ही सूर्या ब्रह्मचारिणी का महत्त्वशाली खजाना है, जिसे कि पिता के घर से पाकर वधू पति के घर की ओर प्रस्थान करती है।] [१. अभ्यञ्जनम् = Applying collyrium (सुरमा) to the eyelashes (आप्टे)। २. अंग्रेजी भाषा में भी चक्षु का वाचक Eye शब्द व्यापक अर्थ रखता है। Eye का अर्थ केवल स्थूल आंख ही नहीं है। इस का अर्थ ख्याल, विचार आदि भी है। यथा "in my mindh eye"; To see eye to ye I इसी प्रकार मन्त्र पठित चक्षु शब्द भी व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मन्त्र में सम्यक् ज्ञान को चक्षुः कहा है। ज्ञानचक्षुः, प्रज्ञाचक्षुः चारचक्षुः नयचक्षुः आदि में भी चक्षुः शब्द का प्रयोग, चर्मचक्षुः से भिन्नार्थों में हुआ है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(यद्) जब (सूर्या) सूर्य की कान्ति के समान चित्तको प्रेरणा करने वाली स्वयंवरा नवयुवति कन्या (पतिम्) पति को (अयात्) प्राप्त होती है उस समय (चित्तिः) चित्त का संकल्प ही (उपबर्हणम्) सेज पर सिर टेकने के लिये लगे सिरहाने के समान सुखदायी (आः) होता है। और (चक्षुः) चक्षु चक्षु में उत्पन्न प्रेम का राग ही (अभि अञ्जनम्) गात्र के ऊपर लगाने के लिये सुगन्ध तैलादि के समान शान्तिदायक (आः) होता है (द्यौः भूमिः) आकाश और भूमि (कोशः आसीत्) ये दोनों कोश = ख़जाने बन जाते हैं। अधिदैवत में सूर्या, उषा जब अपने पति के पास जाती है तब ‘चित्ति’ संकल्प उसका सिरहाना, चक्षु उसका गात्रलेप, पृथ्वी और आकाश उसके खजाने हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
When Surya, the maiden bright as dawn, is married and goes to the house of her husband, her mind and awareness of moral and spiritual values is her cover, her eye and vision itself is the collyrium. Her stability on the reality of earth and her faith in God and heaven is her treasure and security.
Subject
Vivah (marriage)
Translation
When Sun’s daughter, the bride, goes to her husband, her loving mind becomes the pillow (of her couch), the eye becomes the collyrium; and heaven and earth become her chest of treasure. (Rg. X.85.7)
Translation
When Surya, the light of the sun or the dawns goes to its husband, the solar light the thought is its coverlet, eye become unguent for its eyes, and these heaven and earth become its treasure-chest.
Translation
When a girl charming, and beautiful like the Sun, goes to her husband, her mental resolve is comfortable to her like the pillow, love in her eyes is solacing to her like the unguent, and heaven and earth are her treasure chest.
Footnote
See Rig, 10-84-7
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(चित्तिः)चेतना। बुद्धिः (आः) बहुलं छन्दसि। पा० ७।३।९७। अस्तेर्लङि, ईडभावः, तलोपेसकारस्य रुत्वविसर्गौ। आसीत्। छन्दसि। लुङ्लङ्लिटः। पा० ३।४।६। इति लिङर्थेलङ्। स्यात्। एवमन्यत्रापि ज्ञातव्यम्। (उपबर्हणम्) उपवस्त्रं यथा (चक्षुः)दर्शनसामर्थ्यम्। (आः) स्यात् (अभ्यञ्जनम्) शरीरमर्दनद्रव्यं यथा (द्यौः) आकाशः (भूमिः) (कोशः) निधिमञ्जूषा यथा (आसीत्) स्यात् (यत्) यदा (अयात्) याप्रापणे-लङ्। यायात्। प्राप्नुयात् (सूर्या) अ० ९।४।१४। राजसूयसूर्य०। पा०३।१।११४। सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे निपातनात् क्यपि रूपसिद्धिः। सूर्याद् देवतायांचाब् वक्तव्यः। वा० पा० ४।१।४८। इति चाप्। सूर्या वाङ्नाम-निघ० १।११। पदनाम-निघ०५।६। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। पत्नी=विभूतिर्दीप्तिः। प्रेरिका।सूर्यदीप्तिवत्तेजस्विनी कन्या (पतिम्) भर्तारम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal