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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    रैभ्या॑सीदनु॒देयी॑ नाराशं॒सी न्योच॑नी।सू॒र्याया॑ भ॒द्रमिद्वासो॒ गाथ॑यति॒परि॑ष्कृता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रैभी॑ । आ॒सी॒त् । अ॒नु॒ऽदेयी॑ । ना॒रा॒शं॒सी । नि॒ऽओच॑नी । सू॒र्याया॑: । भ॒द्रम् । इत् । वास॑: । गाथ॑या । ए॒ति॒ । परि॑ष्कृता ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयतिपरिष्कृता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रैभी । आसीत् । अनुऽदेयी । नाराशंसी । निऽओचनी । सूर्याया: । भद्रम् । इत् । वास: । गाथया । एति । परिष्कृता ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (रैभी) वेदवाणी (सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या की (अनुदेयी) साथिन [समान] और (नाराशंसी) मनुष्यों के गुणों की स्तुति (न्योचनी)नौची [छोटी सहेली समान] (आसीत्) हो। और (भद्रम्) शुभ कर्म (इत्) ही (वासः)वस्त्र [समान] हो [क्योंकि वह] (गाथया) गाने योग्य वेदविद्या से (परिष्कृता)सजी हुई (एति) चलती है ॥७॥

    भावार्थ

    कन्या वेदों औरइतिहासों को पढ़कर विचारकर शुभ कर्म करती हुई उत्तम विद्या से अपनी शोभा बढ़ावे॥७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।६ ॥

    टिप्पणी

    ७−(रैभी) रेभ-अण्, ङीप्। रेभःस्तोतृनाम-निघ० ३।१६। रेभस्य स्तोतुरियम्। वेदवाणी (आसीत्) स्यात् (अनुदेयी)अनुदीयमानावयस्या (नाराशंसी) नर+शंसु स्तुतौ-अण्। अन्येषामपि दृश्यते। पा०६।३।१३७। इति दीर्घः। ततः प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकोऽण्, नराशंस एव नाराशंसः।येन नराः प्रशस्यन्ते स नराशंसो मन्त्रः-निरु० ९।९। स्त्रियां ङीप्।मनुष्यगुणानां स्तुतिः (न्योचनी) नि+उच समवाये-ल्युट्, ङीप्। लघुसहचरी (सूर्यायाः) म० ६। प्रेरिकायाः सूर्य्यदीप्तिवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (भद्रम्)शुभकर्म (इत्) एव (वासः) वस्त्रम् (गाथया) उषिकुषिगार्तिभ्यस्थन्। उ० २।४। गैगानेथन्। गानयोग्यया वेदविद्यया (एति) गच्छति (परिष्कृता) अलङ्कृता ॥

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    विषय

    रैभी नाराशंसी, भद्रं गाथा

    पदार्थ

    १. विवाह के समय भी-प्रभु-स्तवन करनेवाली ऋचा ही (अनुदेयी) = इसका दहेज (आसीत्) = था। पिता कन्या को ऋचाओं द्वारा प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाली बनाता है। यह स्तुतिवृत्तिवाली बना देना ही सर्वोत्तम दहेज देना है। (नाराशंसी) = नर-समूह के शंसन की वृत्ति, सबकी प्रशंसा करने की वृत्ति और कमियों की ओर ध्यान न देने की वृत्ति ही इसका (न्योचनी) = कुर्ता होता है अथवा वीर पुरुषों के चरितों का शंसन, अर्थात् इनका इतिहास ज्ञान ही इस युवति का समुचित वस्त्र है। २. (भद्रं इत् सूर्यायाः वास:) = इस युवति की भगता ही इसका ओढ़ने का वस्त्र है। (गाथया) = प्रभु गुणगान से (परिष्कृता) = अलंकृत हुई-हुई यह (युवति एति) = पतिगृह की ओर आती है |

    भावार्थ

    कन्या को स्तुतिवृत्तिवाला बना देना ही सच्चा दहेज है। सदा दूसरों के गुणों को देखने की वृत्तिवाला होना ही इसका कुर्ता है। यह युवति किसी के भी अवगुणों की ओर ध्यान नहीं देती, अत: निन्दा नहीं करती। इसका वस्त्र इसकी भद्रता है, शिष्टाचार है। यह प्रभु-गुणगान की वृत्ति से परिष्कृत जीवनवाली बनकर पतिगृह को प्राप्त होती है।

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    भाषार्थ

    (रैभी) परमेश्वर की स्तुति करनेवाले स्तोताओं द्वारा दी गई वैदिक स्तुतिवाणी (अनुदेयी) साथ दी गई सम्पत्ति (आसीत्) थी, (नाराशंसी) नर-नारियों के कर्तव्यों का आशंसन अर्थात् कथन करनेवाली वेदवाणी (न्योचनी) नितरां साथ रहनेवाली साथिन थी। (भद्रम्) सुखदायक तथा भद्रजनोचित (इत्) ही, (सूर्यायाः) सूर्या ब्रह्मचारिणी के (वासः) वस्त्र थे, वह (गाथया) वैदिक गानविद्या द्वारा (परिष्कृता) सजी हुई (एति) पतिगृह में आती है।

    टिप्पणी

    [रैभि; रेभः स्तोतृनाम (निघं० ३।१६), रेभति अर्चर्ति कर्मा (निघं० ३।१४) अतः रैभी = परमेश्वर के स्तोताओं द्वारा प्राप्त वैदिक स्तुति वाणी। अनु= साथ-साथ, यथा "अनुगङ्ग" वाराणसी। नाराशंसी =नारा शंसाः१ मन्त्राः (निरु० ७।१।४), अतः नाराशंसी = नराणां नारीणां च कर्तव्यानां आशंसाः कथनानि यस्यां सा वेदवाणी। न्योचनी = नि (नितराम्) उच समवाये, अर्थात् सदा साथ रहनेवाली। विशेषः- अथवा रैभी का व्युत्पादन = रै (धन) + भा (प्रकाश) + ई (स्त्रियाम् ङीष्)। अर्थात् धनविद्या का प्रकाश करनेवाली वेदवाणी] व्याख्या-- गृहस्थ जीवन को सात्विक बनाने के लिये परमेश्वर की स्तुति उपासना की अत्यन्त आवश्यकता है। इसलिये रैभी को अनुदेयी कहा है। रैभी का अर्थ धनविद्यासम्बन्धी वेदवाणी भी सम्भव है। वर्तमान समय में वधू, जब पति के घर जाती है, तो वह प्राकृतिक दहेज साथ ले कर जाती है। साथ दी गई सम्पत्ति को अनुदेयी कहा है। सूर्या ब्रह्मचारिणी को पढ़ाए गए मन्त्र, जिन में कि धनविद्या या अर्थ शास्त्र का वर्णन है, वह मानो विवाह में दी गई सम्पत्ति है। जिसे अर्थशास्त्र की विद्या प्राप्त है वह स्वयं धनोपार्जन कर सकती है। उसे पितृगृह से धन लाने की आवश्यकता नहीं। मनुस्मृति में इसीलिये कहा है कि— अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत् (अध्या० ९, श्लो० ११) अर्थात् पत्नी को धन-संग्रह तथा व्यय के काम में पति नियुक्त करे। अर्थात् घर में धन के संग्रह तथा व्यय का अधिकार पत्नी को देना चाहिये। विना अर्थविद्या के जाने अर्थसंग्रह और अर्थव्यय का कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो सकता। अतः अर्थविद्या का अनुदान वस्तुतः सम्पत्तिदान हैं। इसी प्रकार सूर्या ब्रह्मचारिणी को ब्रह्मचर्यकाल में जो नर-नारी के कर्तव्यों सम्बन्धी मन्त्र पढ़ाए गए हैं वे नववधू के साथ सदा रहनेवाली साथिन है। अनुदेयी-सम्पत्ति की अपेक्षया न्योचनी-विद्या अधिक महत्त्व रखती है। विवाह के समय वर, स्वयं वधू के लिये, वस्त्र लाता है, और वर द्वारा लाए वस्त्र ही विवाह में वधू को पहिनाए जाते हैं, पितृगृह के वस्त्र नहीं। पितृगृह से तो वधू को सुखदायक तथा भद्रजनोचित वस्त्र ही मिलते हैं, नकि चमकीले-भड़कीले। वर द्वारा दिये गए वस्त्रों का वर्णन अथर्व० १४।१।४५ में हुआ है। नववधू वैदिक गानविद्या द्वारा परिष्कृत भी होनी चाहिये। अर्थात् नववधू गान विद्या की सजावट से सजी हुई होनी चाहिये। गृहस्थ जीवन को मधुर तथा रसवान बनाने के लिए गानविद्या द्वारा वधू को विभूषित होना चाहिये।] [१. येन नराः प्रशस्यन्ते स नाराशंसो मन्त्रः (निरू० ९।१।९)।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (सूर्यायाः) सूर्या, कन्या की (रेभी) रेभी नामक ऋचा (अनुदेयी) विदाई के समय का दहेज हो। और (नाराशंसी) नाराशंसी इतिहास कथा (न्योचनी) गृह प्रवेश के समय पहनने योग्य ओढ़नी या आभूषण (आसीत्) हो और (सूर्यायाः) सूर्या के समान कान्तिमती कन्या का (वासः) वस्त्र ही (भद्रम् इत) प्रति कल्याणकारी सुखकारी और सुन्दर ही हो, इस प्रकार वह (गाथया परिष्कृता) गाथा, श्लोक, मन्त्रपाठ आदि से सुशोभित होकर तब वधू पति के घर (एति) आवे।

    टिप्पणी

    ‘परिष्कृताम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Raibhi verses of divine adoration are her dowry. Vedic verses on human values and social relations are her companion. Truth, beauty and goodness of life for all is the bride’s wear as she goes, adorned and sanctified, to the house of her husband.

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    Translation

    The raibhi verse (verse praising the bride) was her bridal companion; the narsansi verse (verse praising the bride groom) was the guide to her home. The dress of the damsel of marriageable age was lovely of course. She goes forth adorned with gätha (song). (Rg. X.85.6; Variation)

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    Translation

    The Raibhi verse becomes dowry and the Narashansi verse become the address of her (of Surya) reception. The robe of Surya is very nice. She goes beautifully dressed with Gathas.

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    Translation

    At the time of departure from the parental home, Vedic speech is the dowry of the beautiful girl. At the time of entering her husband’s house, her renown is her ornament. Her noble acts are her garment. She marches embellished with Vedic knowledge worthy of being sung.

    Footnote

    See Rig, 10-84-6

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(रैभी) रेभ-अण्, ङीप्। रेभःस्तोतृनाम-निघ० ३।१६। रेभस्य स्तोतुरियम्। वेदवाणी (आसीत्) स्यात् (अनुदेयी)अनुदीयमानावयस्या (नाराशंसी) नर+शंसु स्तुतौ-अण्। अन्येषामपि दृश्यते। पा०६।३।१३७। इति दीर्घः। ततः प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकोऽण्, नराशंस एव नाराशंसः।येन नराः प्रशस्यन्ते स नराशंसो मन्त्रः-निरु० ९।९। स्त्रियां ङीप्।मनुष्यगुणानां स्तुतिः (न्योचनी) नि+उच समवाये-ल्युट्, ङीप्। लघुसहचरी (सूर्यायाः) म० ६। प्रेरिकायाः सूर्य्यदीप्तिवत्तेजस्विन्याः कन्यायाः (भद्रम्)शुभकर्म (इत्) एव (वासः) वस्त्रम् (गाथया) उषिकुषिगार्तिभ्यस्थन्। उ० २।४। गैगानेथन्। गानयोग्यया वेदविद्यया (एति) गच्छति (परिष्कृता) अलङ्कृता ॥

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