अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 42
ऋषिः - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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आ॒शास॑मानासौमन॒सं प्र॒जां सौभा॑ग्यं र॒यिम्। पत्यु॒रनु॑व्रता भू॒त्वा संन॑ह्यस्वा॒मृता॑य॒ कम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽशासा॑ना । सौ॒म॒न॒सम् । प्र॒ऽजाम् । सौभा॑ग्यम् । र॒यिम् । पत्यु॑: । अनु॑ऽव्रता । भू॒त्वा । सम् । न॒ह्य॒स्व॒ । अ॒मृता॑य । कम् ॥१.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
आशासमानासौमनसं प्रजां सौभाग्यं रयिम्। पत्युरनुव्रता भूत्वा संनह्यस्वामृताय कम् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽशासाना । सौमनसम् । प्रऽजाम् । सौभाग्यम् । रयिम् । पत्यु: । अनुऽव्रता । भूत्वा । सम् । नह्यस्व । अमृताय । कम् ॥१.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] (सौमनसम्)मन की प्रसन्नता, (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि], (सौभाग्यम्) बड़ीभाग्यवाली और (रयिम्) धन को (आशासमाना) चाहती हुई तू (पत्युः) पति के (अनुव्रता)अनुकूल कर्मवाली (भूत्वा) होकर (अमृताय) अमरपन [पुरुषार्थ और कीर्ति] के लिये (कम्) सुख से (सं नह्यस्व) सन्नद्ध होजा [युद्ध के लिये कवच धारण कर] ॥४२॥
भावार्थ
सब कुटुम्बी लोग वधूको शिक्षा दें कि वह विदुषी वधू योग्यता के साथ पति से प्रीति करकेप्रसन्नतापूर्वक गृहकार्यों को सिद्ध करे ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(आशासमाना) कामयमाना (सौमनसम्)मनःप्रसादम् (प्रजाम्) सन्तानसेवकादिरूपाम् (सौभाग्यम्) सुभगत्वम् (रयिम्) धनम् (पत्युः) स्वामिनः (अनुव्रता) व्रतं कर्मनाम-निघ० २।१। अनुकूलकर्मा (भूत्वा) (संनह्यस्व) सन्नद्धा भव। सन्नाहं युद्धाय कवचं धारय (अमृताय) अमरणाय।पुरुषार्थाय कीर्त्तये च (कम्) सुखेन ॥
विषय
सौमनस्य, प्रजा, सौभाग्य, रयि
पदार्थ
१. (सौमनसम्) = उत्तम स्वान्त [मन का], (प्रजा सौभाग्यं रयिम्) = सन्तान, सौभाग्य व सम्पत् को (आशासाना) = चाहती हुई, हे पुत्रवधु! तू (पत्यु: अनुवता भूत्वा) = पति के अनुकूल व्रतोंवाली होकर (कम्) = सुखपूर्वक (अमृताय) = अमृतत्व के लिए, शतवर्षपर्यन्त जीवन के लिए (सं नास्व) = संनद्ध हो जा।
भावार्थ
पत्नी 'सौमनस, सन्तति, सौभाग्य व सम्पत्' की कामना करती हुई पति के अनुकूल व्रतोंवाली होकर पूरे सौ वर्ष के दीर्घजीवन के लिए कामना करे।
भाषार्थ
(सौमनसम्) मन की प्रसन्नता, (प्रजाम्) उत्तम सन्तान, (सौभाग्यम्) उत्तम भगों की सत्ता (रयिम्) तथा धन को (आशासाना) चाहती हुई हे वधू! तू (पत्युः) पति के (अनुव्रता) अनुकूल व्रतों तथा कर्मों को करने वाली (भूत्वा) हो कर (अमृताय) मोक्ष या अनश्वर परमेश्वर की प्राप्ति के लिए (सं नह्यस्व) संनद्ध हो जा, तय्यार हो जा।
टिप्पणी
[अनुव्रता; व्रतम् कर्मनाम (निघं० २।१), अथवा सत्याचरणादि व्रत। आशासाना=आङः शासु इच्छायाम् (अदादिः)] [व्याख्या—परस्पर की प्रसन्नता और खुशी का राज्य, गृह में पत्नी पर अधिक निर्भर करता है। यदि पत्नी कलह प्रिया और कटुभाषिणी होगी तो गृहजीवन में सदा दुःख और क्लेश का ही राज्य होगा। अतः पत्नी सदा सौमनस चाहा करे। पत्नी सदा उत्तम सन्तानें चाहे। जाः अपत्यम् (निरु० ६।२।९); प्रजाः=प्रकृष्ट अपत्य। माता के विचारों, व्यवहारों तथा संस्कारों का प्रभाव बच्चों पर अधिक हुआ करता है। इसलिये माता अपने मन में बच्चों को प्रकृष्ट बनाने की भावना सदा जागरित रखे। बच्चा जब गर्भ में ही हो तब भी माता के मन में यह भावना सदा जागरित रहे। तथा बच्चा जब जन्म पा ले तब और भी माता के मन में यह भावना जागरित रहनी चाहिये। पत्नी उत्तम भगों को सदा चाहे। उत्तमऐश्वर्य, उत्तमधर्म, उत्तमयश, उत्तमश्री, उत्तमज्ञान और उत्तमवैराग्य,-इन की प्राप्ति सौभाग्य है। ऐश्वर्य आदि उत्तम भी होते हैं और अनुत्तम भी। सुपथ द्वारा उपार्जित ऐश्वर्य आदि उत्तम है और कुपथ द्वारा उपार्जित अनुत्तम। श्रद्धापूर्वक किया गया धर्म उत्तम है और लोक प्रशंसा के लिए किया गया अनुत्तम। त्याग, तपस्या, परोपकार, दान आदि द्वारा प्राप्त यश उत्तम है, और परनिन्दा, धोखेबाजी द्वारा प्राप्त अपयश अनुत्तम। ज्ञानवृद्धि के लिए प्राप्त ज्ञान उत्तम है, विवाद के लिए प्राप्त ज्ञान अनुत्तम। मोह-ममता विहीन वैराग्य उत्तम है छद्मवेशी वैराग्य अनुत्तम। भद्रवस्त्रों में श्री अर्थात् शोभा उत्तम है, और चित्ताकर्षक वेशभूषा में अनुत्तम। पति और पत्नी के व्रतों और कर्मों में यदि परस्पर अनुकूलता हो तो गृहजीवन अधिक सुखी हो जाता है। इस लिये मन्त्र में “पत्युरनुव्रता भूत्वा" कहा है। पत्नी गृहस्थजीवन में, गृहस्थ के ऐहलौकिक कृत्यों के साथ साथ मोक्षकृत्यों के लिए भी प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्न करती रहे। गृहस्थधर्म में प्रतिपादित कर्त्तव्यों का पालन यदि भक्ति, श्रद्धा और निःस्पृहता तथा फलत्याग की भावना से किया जाये तो इस से पत्नी मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाती है।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(सौमनसम्) उत्तम चित्त, (प्रजाम्) उत्तम सन्तान, (सौभाग्यम्) उत्तम सौभाग्य और (रयिम्) धन समृद्धि की (आशासाना) आशा करती हुई हे वधु ! तू (पत्युः) अपने पति के (अनुव्रता) अनूफूल वर्त्तनेहारी (भूत्वा) होकर (अमृताय) अमृत, पूर्ण १०० वर्ष की आयु प्राप्त करने अथवा सुख, प्राण, अमृत या प्रजा लाभ के लिये (सं नह्यस्व) अपने को कटिबद्ध कर, तैयार हो।
टिप्पणी
(द्वि० च०) ‘प्रचोबहुरथोबलम्। इन्द्राण्यनुव्रता सन्नह्येऽमृतायकम्’। इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O bride, hoping and planning to achieve life’s happiness with good cheer of mind, noble progeny, good fortune and the wealth of life, having joined your husband for a common purpose in common discipline with him, prepare yourself and launch upon the joint mission of earthly joy and immortal freedom of the soul.
Translation
Desiring friendliness (affection), offspring, marital bliss, and wealth, being devoted to your husband, prepare yourself for immortal happiness.
Translation
O bride. you expecting keenly delight, progeny, prosperity and wealth, being devoted to your husband bind yourself for immortality.
Translation
O woman, longing for cheerfulness, children, prosperity, and wealth, devoted to thy husband, gird thyself for securing the full span of life for a hundred years with ease!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(आशासमाना) कामयमाना (सौमनसम्)मनःप्रसादम् (प्रजाम्) सन्तानसेवकादिरूपाम् (सौभाग्यम्) सुभगत्वम् (रयिम्) धनम् (पत्युः) स्वामिनः (अनुव्रता) व्रतं कर्मनाम-निघ० २।१। अनुकूलकर्मा (भूत्वा) (संनह्यस्व) सन्नद्धा भव। सन्नाहं युद्धाय कवचं धारय (अमृताय) अमरणाय।पुरुषार्थाय कीर्त्तये च (कम्) सुखेन ॥
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