अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
ऋषिः - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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आ॒शस॑नंवि॒शस॑न॒मथो॑ अधिवि॒कर्त॑नम्। सू॒र्यायाः॑ पश्य रू॒पाणि॒ तानि॑ ब्र॒ह्मोतशु॑म्भति ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽशस॑नम् । वि॒ऽशस॑नम् । अथो॒ इति॑ । अ॒धि॒ऽवि॒कर्त॑नम् । सू॒र्याया॑: । प॒श्य॒ । रू॒पाणि॑ । तानि॑ । ब्र॒ह्मा । उ॒त । शु॒म्भ॒ति॒ ॥१.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
आशसनंविशसनमथो अधिविकर्तनम्। सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मोतशुम्भति ॥
स्वर रहित पद पाठआऽशसनम् । विऽशसनम् । अथो इति । अधिऽविकर्तनम् । सूर्याया: । पश्य । रूपाणि । तानि । ब्रह्मा । उत । शुम्भति ॥१.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्यायाः) प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या की (आशसनम्) आशंसा [अप्राप्तके पाने की इच्छा], (विशसनम्) विशंसा [प्राप्त का शुभ कर्मों में व्यय] (अथो) औरभी (अधिविकर्तनम्) अधिकारपूर्वक विघ्नों का छेदन, (रूपाणि) इन रूपों [सुन्दरलक्षणों] को (पश्य) तू देख, (तानि) उन [सुन्दर लक्षणों] को (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदवेत्ता पति] (उत) ही (शुम्भति) शोभायमान करता है ॥२८॥
भावार्थ
जब वधू-वर परस्पर शुभगुणों और मर्यादाओं का मान करते हैं, तब उत्तम प्रबन्ध से उस गृहाश्रम की शोभाबढ़ती है ॥२८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३५ ॥
टिप्पणी
२८−(आशसनम्) आङःशसि इच्छायाम्-ल्युट्, नकारलोपः। आशंसा। अप्राप्तस्य प्राप्तीच्छा (विशसनम्)वि+शसि इच्छायाम्-ल्युट्, नलोपः। प्राप्तस्य शुभकर्मसु व्ययः (अथो) अपि च (अधिविकर्तनम्) कृती छेदने वेष्टने च-ल्युट्। अधिकृत्य विघ्नानां छेदनम् (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः कन्यायाः (पश्य) अवलोकय (रूपाणि) लक्षणानि (तानि)लक्षणानि (ब्रह्मा) वेदवेत्ता पतिः (उत) एव (शुम्भति) दीपयति। शोभयति ॥
विषय
आशसन, विशसन, अधिविकर्तन
पदार्थ
२.[क] (आशसनम्) = घर में सब प्रकार से उन्नति की इच्छा करता हुआ व तदनुसार शासन करना, अर्थात् घर के अन्दर सब कार्यों के ठीक प्रकार से होने की व्यवस्था करना, [ख] (विशसनम्) = विशिष्ट इच्छाओंवाला होना, अर्थात् घर की उन्नति के लिए आवश्यक सब पदार्थों को जुटाने की कामना करना तथा सब आवश्यक कार्यों को करना। [ग] (अथो) = और निश्चय से (अधिविकर्तनम्) = वस्त्रों को विविधरूपों में काटने आदि का काम करना। (सूर्याया:) = सूर्यसम दीप्त जीवनवाली इस गृहिणी के (रूपाणि पश्य) = इन रूपों को देखिए। सूर्या घर में समुचित शासन रखती है, उत्कृष्ट शब्दोंवाली होती है और कपड़ों के सीने आदि के कार्यों को स्वयं भी करती है। २. (उत) = और (ब्रह्मा) = घर का निर्माण करनेवाला समझदार पति (तु) = तो (तानि) = सूर्या के उन सब कार्यों को (शुम्भति) = शोभायुक्त करता है। उन कार्यों में थोड़ी बहुत कमी होती भी है तो उसे उचित परामर्श देकर दूर करने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
गृहपत्नी [क] घर का समुचित शासन करती है, [ख] नई-नई इच्छाएँ करती हुई घर को उन्नत करने का प्रयत्न करती है [ग] वस्त्रों के सीने आदि की व्यवस्था को स्वयं करती है।
भाषार्थ
(आशसनम्) आशामय जीवन, (विशसनम्) विशेष प्रशस्त जीवन, (उत) तथा (अधिविकर्तनम्) अधिकार पूर्वक कपड़े को विविध प्रकार से काटने तथा कातने का कर्म; (सूर्यायाः) सूर्या ब्रह्मचारिणी के (रूपाणि) इन रूपों को (पश्य) तू देख। (तानि) उन रूपों को (ब्रह्मा) वेदवेत्ता और ब्रह्मज्ञानी (शुम्भति) सुशोभित करता है।
टिप्पणी
[आशसनम् = आशा। यथा "यदाशसा वदतो मे विचुक्षुमे" (अथर्व० ७।५७।१); अर्थात् आशापूर्वक बोलते हुए जो मेरा विक्षुब्ध हुआ है। विशसनम्=वि (विशेष) + शस् (प्रशस्ति, प्रशस्त) अर्थात् प्रशंसित जीवन। शस्त=graised (आप्टे)। अधि+विकर्तनम् यथा "या अकृन्तन्नवयन्" (अथर्व० १४।१।४५)] [व्याख्या—मन्त्र में सूर्या ब्रह्मचारिणी के रूपों अर्थात् स्वरूपों या गुणों का वर्णन हुआ है। पत्नी को सदा आशामय जीवन व्यतीत करना चाहिये। आपत्तियों तथा कष्टों में भी पत्नी को अपना आशामय जीवन बनाने का अभ्यास करना चाहिये। आशामय जीवन के साथ साथ पत्नी को अपना जीवन विशेषतया शस्त अर्थात् प्रशस्त बनाना चाहिये। निराशा में भी प्रशस्त कर्म, तथा सदा प्रशस्त व्यवहार करने चाहियें, इस आशा से किः सब दिन एक समान नहीं रहते। अधिकार पूर्वक वस्त्रों को काटना-सीना, कातना तथा बुनना पत्नी का गृहशिल्प होना चाहिये। कन्या की शिक्षा का यह एक विशेष अङ्ग होना चाहिये। इस सम्बन्ध में कन्याओं को विशेष दक्षता प्राप्त करनी चाहिये ताकि वे अधिकार पूर्वक उक्त कार्यों को कर सकें। सूर्या ब्रह्मचारिणी ने ब्रह्मचर्यकाल में वैदिक शिक्षा पाई है और तदनुसार निज जीवन को ढाला है, इसलिये इस के योग्य पति भी वेदज्ञ विद्वान् ही होना चाहिये। वह ही विदुषी सूर्या के सद्गुणों में शोभारूप बन सकता है, और सूर्या के सद्गुणों की शोभा बढ़ा सकता है। ब्रह्मा-कोटि के वर, तथा सूर्या-कोटि की वधू का, परस्पर विवाह “ब्राह्मविवाह" कहलाता है। ब्राह्मविवाह के सम्बन्ध में मनुस्मृति का श्लोक निम्न लिखित है,— आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्। आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्त्तितः॥ अर्थात्—“कन्या के योग्य, सुशील तथा [वेदों] के विद्वान् पुरुष का सत्कार करके, कन्या को वस्त्र आदि से अलङ्कृत करके, उस उत्तम पुरुष को बुला कर, अर्थात् जिस को कन्या ने भी प्रसन्न [पसन्द] किया हो, उस को कन्या देना, वह ब्राह्मविवाह कहाता है"। (संस्कारविधि, महर्षि दयानन्द)।
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(सूर्यायाः) पुत्र प्रसव करने में समर्थ युवति के (रूपाणि) रूपों को (पश्य) देख। उस में रजस्वला होने के समय अङ्गों का (आशसनम्) कटना (विशसनम्) फटना और (अधि विकर्तनम्) चिरना आदि होता है। (तानि) उन सब दोषों और मलिनता के कार्यों को (ब्रह्मा उत) ब्रह्मा, विधाता परमेश्वर या ब्रह्मज्ञानी विद्वान् ही (शुम्भति) संस्कार द्वारा उसको शुद्ध करता है।
टिप्पणी
(च०) ‘ब्रह्मनु शुन्धति’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Hope and expectation on the one hand, and fear and frustration on the other, appreciation and praise on the one hand, and anger and cruelty on the other, cutting and designing on the one hand, and irony that cuts deep to the very core, these are various moods and manners of women. These, Brahma, husband of the woman, wise and visionary, ought to see, and having seen as modes of appearance and reflection, he knows, corrects, purifies or excuses with higher understanding.
Translation
Cutting up, cutting through, and also cutting to small pieces (the heart as if); look at the beauteous forms of the damsel of marriageable age. The wise one makes them splendid. (Rg. X.85.35; Variation)
Translation
O husband! behold the forms of Surya, your wife involving hard-embracing, violent-throwing of hands etc. and the cutting of lips with teeth. The sacrament comprised of Ved-mantras (Impregnation ceremony) beautifies all these acts.
Translation
O husband, watch the cutting, bursting, and severing of limbs and joints of your wife at the time of her menstruation. A learned person alone can rid her of these pains.
Footnote
See Rig, 10-85-35.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(आशसनम्) आङःशसि इच्छायाम्-ल्युट्, नकारलोपः। आशंसा। अप्राप्तस्य प्राप्तीच्छा (विशसनम्)वि+शसि इच्छायाम्-ल्युट्, नलोपः। प्राप्तस्य शुभकर्मसु व्ययः (अथो) अपि च (अधिविकर्तनम्) कृती छेदने वेष्टने च-ल्युट्। अधिकृत्य विघ्नानां छेदनम् (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः कन्यायाः (पश्य) अवलोकय (रूपाणि) लक्षणानि (तानि)लक्षणानि (ब्रह्मा) वेदवेत्ता पतिः (उत) एव (शुम्भति) दीपयति। शोभयति ॥
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