अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
ऋषिः - आत्मा
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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इ॑न्द्रा॒ग्नीद्यावा॑पृथि॒वी मा॑त॒रिश्वा॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगो॑ अ॒श्विनो॒भा।बृह॒स्पति॑र्म॒रुतो॒ ब्रह्म॒ सोम॑ इ॒मां नारीं॑ प्र॒जया॑ वर्धयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । मा॒त॒रिश्वा॑ । मि॒त्रावरु॑णा । भग॑: । अ॒श्विना॑ । उ॒भा । बृह॒स्पति॑: । म॒रुत॑: । ब्रह्म॑ । सोम॑: । इ॒माम् । नारी॑म् । प्र॒ऽजया॑ । व॒र्ध॒य॒न्तु॒ ॥१.५४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नीद्यावापृथिवी मातरिश्वा मित्रावरुणा भगो अश्विनोभा।बृहस्पतिर्मरुतो ब्रह्म सोम इमां नारीं प्रजया वर्धयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राग्नी इति । द्यावापृथिवी इति । मातरिश्वा । मित्रावरुणा । भग: । अश्विना । उभा । बृहस्पति: । मरुत: । ब्रह्म । सोम: । इमाम् । नारीम् । प्रऽजया । वर्धयन्तु ॥१.५४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्राग्नी) बिजुलीऔर भौतिक अग्नि, (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि, (मित्रावरुणा) प्राण और अपान, (उभा) दोनों (अश्विना) दिन और रात्रि, (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला [सूत्रात्मा वायु], (बृहस्पतिः) बड़े लोकों का रक्षक [आकाश], (सोमः) चन्द्रमा, (भगः) सेवनीय यश (ब्रह्म) अन्न, और (मरुतः) विद्वान् लोग (इमाम् नारीम्) इस नारीको (प्रजया) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] से (वर्धयन्तु) बढ़ावें ॥५४॥
भावार्थ
विदुषी स्त्री औरविद्वान् पुरुष को योग्य है कि संसार के सब पदार्थों को उपयोगी बनाकर सन्तान आदिको वृद्धियुक्त करें ॥५४॥
टिप्पणी
५४−(इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (द्यावापृथिवी)सूर्यभूमिलोकौ (मातरिश्वा) आकाशे गमनशीलः सूत्रात्मा वायुः (मित्रावरुणा)प्राणापानौ (भगः) सेवनीयं यशः (अश्विना) अहोरात्रौ (उभा) द्वौ (बृहस्पतिः) बृहतांलोकानां पालक आकाशः (मरुतः) विद्वांसः (ब्रह्म) अन्नम् (सोमः) चन्द्रः (इमाम्)विदुषाम् (नारीम्) नरपत्नीम् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (वर्धयन्तु) उन्नयन्तु ॥
विषय
एक नारी के चौदह रत्न
पदार्थ
१. (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि, अर्थात् जितेन्द्रियता व आगे बढ़ने की भावना, (द्यावापृथिवी) = स्वस्थ मस्तिष्क व स्वस्थ शरीर [मूर्नो द्यौः, पृथिवी शरीरम्] (मातरिश्वा) = वायु, अर्थात् शुद्ध वायु का सेवन, (मित्रावरुणा) = स्नेह व निद्वेषता [द्वेष-निवारण] की भावना, (भग:) = उत्तम ऐश्वर्य-दरिद्रता का अभाव, (उभा अश्विना) = दोनों प्राण व अपान, (बृहस्पति:) = [बृहतां पतिः] विशाल हृदयता, संकुचित मनोवृत्ति का न होना, (मरुत:) = मितराविता-बहुत बोलने की प्रवृत्ति का न होना, (ब्रह्म) = ज्ञान (सोम:) = शरीर में सोमशक्ति का (रक्षण) = ये सब (इमां नारीम) = इस नारी को (प्रजया वर्धयन्तु) = उत्तम सन्तति से बढ़ाएँ। इन्द्र व अग्नि आदि शब्दों से सूचित भाव इस नारी को उत्तम सन्तति प्राप्त कराएँ।
भावार्थ
सन्तति की उत्तमता के लिए गृहिणी को 'जितेन्द्रियता, प्रगतिशीलता, स्वस्थ मस्तिष्क, स्वस्थ शरीर, शुद्ध वायुसेवन, स्नेह, निढेषता, उत्तम ऐश्वर्य, प्राणशक्ति, अपानशक्ति, विशाल हृदयता, मितराविता, ज्ञान व सोमशक्ति का शरीर में रक्षण'-इन चौदह रत्नों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए।
भाषार्थ
(इन्द्राग्नी) विद्युत् और अग्नि, (द्यावापृथिवी) चमकता सूर्य तथा विस्तृत भूमि, (मातरिश्वा) अन्तरिक्षीय वायु, (मित्रावरुणा) दिन और रात, (भगः) ऐश्वर्य आदि छः, (उभा) दोनों (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा, (बृहस्पतिः) वेदों का विद्वान् पुरोहित, (मरुतः) मानसून वायुएं, (ब्रह्म) वेदस्वाध्याय, (सोमः) वीर्यरक्षा तथा सोम आदि ओषधियों का सेवन, – (इमाम्, नारीम्) इस नारी को (प्रजया) प्रजासमेत (वर्धयन्तु) बढ़ाएं।
टिप्पणी
[इन्द्रः=इन्द्रः अन्तरिक्षस्थानः (निरु० ७।२।५), अर्थात् इन्द्र का स्थान है अन्तरिक्ष। अतः इन्द्र=विद्युत्। मातरिश्वा = वायुः; "मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति, मातर्याश्वनितीति वा" (निरु० ७।७।२६)। मित्रावरुणा=अहोरात्रौ (तां० २५।१०।१०)। भगः- ऐश्वर्य, धर्म, ज्ञान, वैराग्य। अश्विना= सूर्याचन्द्रमसावित्येके (निरु० १२।१।१)। मरुतः= मानसून वायु। यथा "अपः समुद्राद्दिवमुद्वहन्ति दिवस्पृथिवीमभि ये सृजन्ति। ये अद्भिरीशाना मरुतश्चरन्ति ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥" (अथर्व० ४।२७।४)। ब्रह्म= वेद स्वाध्याय (अथर्व० १४।१।१।६४)। सोमः = उत्पादक वीर्य, रजस् (अथर्व० १४।१।१।२-५), तथा सोम ओषधि] [व्याख्या - स्वास्थ्य-वर्धन के लिए पहला साधन दर्शाया है इन्द्र अर्थात् विद्युत्। विद्युत् द्वारा चिकित्सा तथा गृह्यप्रयोगों में इस का उपयोग। दूसरा साधन है अग्नि। अग्निहोत्र और ऋतुयज्ञों द्वारा, तथा गार्हपत्याग्नि द्वारा घर तथा बाहर के वायुमण्डल की शुद्धि। तीसरा साधन है द्यौः, अर्थात् कमरों में प्रकाश का होना अर्थात् सूर्य की किरणों का प्रवेश। चौथा साधन है पृथिवी। स्वास्थ्यवर्धन के लिए मकान की भूमि विस्तृत होनी चाहिये, तथा घर स्वास्थ्यकारी पृथिवी पर बनाना चाहिये। पृथिवी= प्रथ विस्तारे। पांचवा साधन है मातरिश्वा अर्थात् वायु। मकानों का इस विधि से निर्माण करना जिस से कमरों में वायु का संचार हो सके। छटा साधन है दिन और रात का नियमपूर्वक होना। लम्बे दिनों तथा लम्बी रातों वाले प्रदेशों में स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सकता। जैसे कि उत्तरध्रुव, दक्षिणध्रुव तथा इन के समीप के प्रदेश। सातवां साधन है भग अर्थात् ऐश्वर्य का होना, धर्मानुसार जीवन, स्वास्थ्य की विधियों का परिज्ञान, और गृहजीवन में भी वैराग्य अर्थात् अतिभाग से विराम। सूर्य और चन्द्र के प्रकाशों का सेवन भी स्वास्थ्यवर्धक है। इसी प्रकार पुरोहित-प्रथा का जारी रखना अर्थात् पुरोहितों द्वारा घरों में धार्मिक कृत्यों, यज्ञों तथा संस्कारों को कराते रहना। मानसून वायु चित्त को प्रसन्न करती, ग्रीष्म ऋतु की गरमी को कम करती, कृषिकर्म को बढ़ाकर, अन्न और ओषधियों को पैदा करती, जिन के सेवन से स्वास्थ्य बढ़ता है। इसी प्रकार ब्रह्मोपासना, तथा वैदिक स्वाध्याय द्वारा स्वास्थ्यवर्धक साधनों के परिज्ञान में स्वास्थ्यवृद्धि होती है। सोमशक्ति का संयम पूर्वक-प्रयोग तथा सोम आदि ओषधियों के सेवन से भी स्वास्थ्यवृद्धि होती है।
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
(इन्द्राग्नी) इन्द्र और अग्नि, मेघ और अग्नि, विद्युत् (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी (मातरिश्वा) आकाश में व्यापक वायु (मित्रावरुणा) मित्र और वरुण, प्राण और अपान (भगः) ऐश्वर्यशील, सूर्य, (उभा अश्विना) दोनों अश्विगण, दिन और रात्रि अथवा नर नारी (बृहस्पतिः) वेदों का स्वामी परमेश्वर (मरुतः) विद्वान् प्रजाएं (ब्रह्म) वेद ज्ञान (सोमः) उत्पादक यह सोम नामक पति ये सब (इमाम् नारीम्) इस स्त्री को (प्रजया वर्धयन्तु) प्रजा से बढ़ती दें।
टिप्पणी
(च०) ‘नार्यं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
May Indra and Agni, nature’s divine energy and fire, heaven and earth, Matarishva, winds and electric energy of the firmament, Mitra and Varuna, sun and moon, day and night, Bhaga, universal prosperity, both Ashvins, complementarities of Nature, Brhaspati, lord of the expansive universe, Maruts, winds of the firmament, Brahma, lord supreme of the universe, Soma, life-giving energy of the moon, bless and advance this bride with noble progeny.
Translation
May the Lord resplendent and adorable, the heaven and earth, the wind of the midspace, the Lord of good fortune, and both the twin physicians, the Lord supreme, the cloudbearing winds, the Lord of sacred knowledge, and the blissful Lord, make this woman prosper with offsprings.
Translation
O Ye relatives! kindly be helpful in well-being of my wife, just as the electricity and fire, the sun and the earth atmospheric air oxygen and hydrogen, good fortune, physician and true preacher, impartial ruler, cultured men, Supreme Being and the moon protect and enhance the lot of the subject and this my wife with prosperity, off spring etc.
Translation
May cloud and electricity, Heaven and Earth, subtle air in the atmosphere. Prana and Apana, the Sun, both Day and Night, God, the Lord of the Vedas, learned persons, Vedic knowledge, the husband, magnify this dame with offspring.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५४−(इन्द्राग्नी) विद्युत्पावकौ (द्यावापृथिवी)सूर्यभूमिलोकौ (मातरिश्वा) आकाशे गमनशीलः सूत्रात्मा वायुः (मित्रावरुणा)प्राणापानौ (भगः) सेवनीयं यशः (अश्विना) अहोरात्रौ (उभा) द्वौ (बृहस्पतिः) बृहतांलोकानां पालक आकाशः (मरुतः) विद्वांसः (ब्रह्म) अन्नम् (सोमः) चन्द्रः (इमाम्)विदुषाम् (नारीम्) नरपत्नीम् (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (वर्धयन्तु) उन्नयन्तु ॥
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