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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
    ऋषिः - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    यथा॒सिन्धु॑र्न॒दीनां॒ साम्रा॑ज्यं सुषु॒वे वृषा॑। ए॒वा त्वं॑ स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒पत्यु॒रस्तं॑ प॒रेत्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । सिन्धु॑: । न॒दीना॑म् । साम्ऽरा॑ज्यम् । सु॒सु॒वे । वृषा॑ । ए॒व । त्वम् । स॒म्ऽराज्ञी॑ । ए॒धि॒ । पत्यु॑: । अस्त॑म् । प॒रा॒ऽइत्य॑ ॥१.४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथासिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुवे वृषा। एवा त्वं सम्राज्ञ्येधिपत्युरस्तं परेत्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सिन्धु: । नदीनाम् । साम्ऽराज्यम् । सुसुवे । वृषा । एव । त्वम् । सम्ऽराज्ञी । एधि । पत्यु: । अस्तम् । पराऽइत्य ॥१.४३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 43
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (वृषा)बलवान् (सिन्धुः) समुद्र ने (नदीनाम्) नदियों का (साम्राज्यम्) साम्राज्य [चक्रवर्ती राज्य, अपने लिये] (सुषुवे) उत्पन्न किया है। [हे वधू !] (एव) वैसेही (त्वम्) तू (पत्युः) पति के (अस्तम्) घर (परेत्य) पहुँचकर (सम्राज्ञी)राजराजेश्वरी [चक्रवर्ती रानी] (एधि) हो ॥४३॥

    भावार्थ

    बड़े लोगों की शिक्षाऔर आशीर्वाद से वधू सावधानी के साथ घर के सबकामों को अपने हाथ में लेकर महारानीबनकर रहे ॥४३॥

    टिप्पणी

    ४३−(यथा) येन प्रकारेण (सिन्धुः) समुद्रः (नदीनाम्) सरिताम् (साम्राज्यम्) सार्वभौमत्वम्। चक्रवर्तिराज्यम् (सुषुवे) उत्पादयमास (वृषा)बलवान् (एव) तथा (त्वम्) (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) भव (पत्युः) (अस्तम्)गृहम् (परेत्य) प्राप्य ॥

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    विषय

    सम्राज्ञी [पत्नी]

    पदार्थ

    (यथा) = जिस प्रकार (वृषा) = वृष्टि का कारणभूत [समुद्र से जल वाष्पीभूत होकर आकाश में पहुँचते हैं और वहाँ बादलों के रूप में होकर बरसते हैं], (सिन्धु) = समुद्र (नदीनाम् साम्राज्यं सुषुवे) = नदियों के साम्राज्यों को अपने लिए उत्पन्न करता है, (एव) = इसीप्रकार (त्वम्) = हे पुत्रवधु। तु (पत्युः अस्तं परेत्य) = पति के घर में पहुँचकर (सम्राज्ञी ऐधि) = शासन करनेवाली बन। एक युवति पतिगृह में प्राप्त होकर घर की व्यवस्था को समुचित रखने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर ले |

    भावार्थ

    जिस प्रकार समुद्र नदियों का सम्राट् है, उसीप्रकार युवतियाँ गृहों का शासन करनेवाली हों, सम्राज्ञी हों।

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    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (वृषा) वर्षा करने वाले (सिन्धुः) समुद्र ने (नदीनाम्) नदियों का (साम्राज्यम्) सम्राट् होना (सुषुवे) प्राप्त किया है, (एवा=एवम्) इसी प्रकार (त्वम्) हे वधु! तू (पत्युः) पति के (अस्तम्) घर (परेत्य) जाकर, (सम्राज्ञी) राणी (एधि) बन।

    टिप्पणी

    [व्याख्या— समुद्र का साम्राज्य नदियों पर है। नदियां अपनी जल सम्पत्ति समुद्र को भेंट करती है, चूंकि समुद्र नदियों का राजा है। इसी प्रकार गृहवासियों को चाहिये कि वे अपनी समग्र कमाई इस नववधू के प्रति भेंट कर दिया करें। क्योंकि नववधू पतिगृह की सम्राज्ञी है,. राणी है। परन्तु समुद्र नदियों द्वारा दी गई भेंट को निज स्वार्थ के लिए नहीं रख लेता। वह वृषा है, वर्षा का कारण है। नदियों द्वारा भेंट ले कर समुद्र, वर्षारूप में उस भेंट को पुनः नदियों तथा पृथिवी के अन्य पदार्थों के प्रति सौंप देता है। पत्नी को भी चाहिये प्राप्त कमाई को वह गृहवासियों की समुन्नति में व्यय करे। तथा समुद्र जल की वर्षा करता हुआ भी सदा भरा सा रहता है, इसी प्रकार पत्नी भी धन का व्यय इस विधि से करे कि वह व्यय करती हुई भी धन-सम्पत्ति से सदा परिपूर्ण रहे (देखो मन्त्र ७ की व्याख्या)। परन्तु पत्नी को यह ध्यान में रखना चाहिये कि गृह-साम्राज्य में पत्नी सम्राज्ञी है, तो गृह-साम्राज्य में पति सम्राट् है। शेष गृहवासी इन दोनों द्वारा पालनीय तथा रक्षणीय हैं। सम्राज्ञी सम्राट् के परामर्श द्वारा ही व्यय करे, अन्यथा नहीं। मन्त्र में राजा-प्रजा के पारस्परिक लेन-देन पर भी प्रकाश डाला है। राजा समुद्र के सदृश, प्रजा से कर लेकर, उस का व्यय प्रजा की भलाई के लिए करे, केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    (नदीनां) नदियों के बीच में (यथा) जिस प्रकार (सिन्धुः) समुद्र सब से बड़ा होने के कारण (साम्राज्यं सुषुवे) उन पर शासन करता है उसी प्रकार (वृषा) वीर्यसेचन में समर्थ युवक पति हे स्त्रि ! तेरे लिये (साम्राज्यम् सुषुवे) साम्राज्य बनाता है। उसका वह स्वयं महाराजा है। (एवा) उसी प्रकार (त्वम्) तू (पत्युः अस्तम्) पति के घर (परेत्य) पहुंच कर (साम्राज्ञी) महाराणी (एधि) बन कर रह।

    टिप्पणी

    ‘सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वश्वां भव। ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्नाज्ञी अधिदेवृषु’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Just as the abundant sea in space and on earth orders and runs the water systems of the rivers, so, O bride, having joined the husband’s home, manage the affairs of the family as the queen of a new order.

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    Translation

    Just as mighty sindhu (river) has won supremacy of the Streams, so going to your husband's house, may you prosper as a queen supreme.

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    Translation

    As the vigorous sea wins the imperial supremacy over the rivers so you going to house of your husband, be imperial queen of his house and family.

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    Translation

    As mighty ocean won himself imperial lordship of the streams, so be imperial queen when thou hast come within thy husband’s home.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४३−(यथा) येन प्रकारेण (सिन्धुः) समुद्रः (नदीनाम्) सरिताम् (साम्राज्यम्) सार्वभौमत्वम्। चक्रवर्तिराज्यम् (सुषुवे) उत्पादयमास (वृषा)बलवान् (एव) तथा (त्वम्) (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) भव (पत्युः) (अस्तम्)गृहम् (परेत्य) प्राप्य ॥

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