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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
    ऋषिः - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒श्वशु॑रेषु स॒म्राज्ञ्यु॒त दे॒वृषु॑। नना॑न्दुः स॒म्राज्ञ्ये॑धि स॒म्राज्ञ्यु॒तश्व॒श्र्वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽराज्ञी॑ । ए॒धि॒ । श्वशु॑रेषु । स॒म्ऽराज्ञी॑ । उ॒त । दे॒वृषु॑ । नना॑न्दृ: । स॒म्ऽराज्ञी॑ । ए॒धि॒ । स॒म्ऽराज्ञी॑ । उ॒त । श्व॒श्वा: ॥१.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्राज्ञ्येधिश्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत देवृषु। ननान्दुः सम्राज्ञ्येधि सम्राज्ञ्युतश्वश्र्वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽराज्ञी । एधि । श्वशुरेषु । सम्ऽराज्ञी । उत । देवृषु । ननान्दृ: । सम्ऽराज्ञी । एधि । सम्ऽराज्ञी । उत । श्वश्वा: ॥१.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वधू !] तू (श्वशुरेषु) अपने ससुर आदि [मेरे पिता आदि गुरु जनों] के बीच (सम्राज्ञी)राजराजेश्वरी, (उत) और (देवृषु) अपने देवरों [मेरे बड़े और छोटे भाइयों] के बीच (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो। (ननान्दुः) अपनी ननद [मेरी बहिन] की (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी, (उत) और (श्वश्र्वाः) अपनी सासु [मेरी माता] की (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो ॥४४॥

    भावार्थ

    वधू विद्या और बुद्धिके बल से अपने कर्तव्यों में ऐसी चतुर हो कि ससुर, सासु, देवर, ननद आदि सब बड़े-छोटे जन उसकी बड़ी प्रतिष्ठा करें ॥४४॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४६। और महर्षिदयानन्दकृत संस्काविधि विवाहप्रकरण में पति के घर पहुँचकरवधू-वर के हवन करने में व्याख्यात है ॥

    टिप्पणी

    ४४−(सम्राज्ञी) सम्यक् प्रकाशमाना।राजराजेश्वरी (एधि) भव (श्वशुरेषु) श्वशुरादिषु मान्येषु (सम्राज्ञी) (उत) अपि (देवृषु) म० ३९। पत्यः कनिष्ठज्येष्ठभ्रातृषु (ननान्दुः) नञि च नन्देः। उ० २।९८।नञ्+टुनदि सन्तोषे-ऋन् वृद्धिश्च। भर्तृभगिन्याः (सम्राज्ञी) (एधि) (उत) (श्वश्र्वाः) श्वशुरस्योकाराकारलोपश्च वक्तव्यः। वा० पा० ४।१।६८। श्वशुर-ऊङ्उकारस्य अकारस्य च लोपः। श्वशुरस्य भार्यायाः ॥

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    विषय

    घर की समुचित व्यवस्था

    पदार्थ

    १. पत्नी को घर में जाकर घर का समुचित प्रबन्ध करना है। उससे कहते हैं कि यहाँ पतिगृह में तू परायापन अनुभव न करना। परायेपन की बात तो दूर रही तू (श्वशरेषु) = पितृतुल्य बड़े लोगों में सम्राज्ञी ऐधि-सम्राज्ञी बन । उनके सब कार्यों की सम्यक् व्यवस्था करनेवाली हो। (उत) = और (देवषु सम्राज्ञी) = सब देवरों में भी तू सम्राज्ञी हो। उनके सब कार्यों को समुचितरूप से कराती हुई त उनके रजन का कारण बन। २. (ननान्दुः सम्राज्ञी ऐधि) = ननद की भी तू सम्राज्ञी हो। तू ननद की सब आवश्यकताओं का ध्यान करती हुई उसकी प्रिय बन, (उत) = और (श्वश्वाः) = श्व को भी (सम्राज्ञी) = तू सम्राज्ञी हो। सास को भी अपने उचित व्यवहार से तू महारानी-सी प्रिय लगे।

    भावार्थ

    पत्नी को चाहिए कि घर में सब व्यवस्थाओं का समुचितरूप से पालन करती कराती हुई वह बड़े व छोटे सबकी प्रिय बने।

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    भाषार्थ

    हे वधु! (श्वशुरेषु) अपने ससुरों में तू (सम्राज्ञी) राजेश्वरी (एधि) हो, (उत) और (देवृषु) देवरों में (सम्राज्ञी) राजेश्वरी हो। (ननान्दु) ननान्द के सम्बन्ध में (सम्राज्ञी) राजेश्वरी (एधि) हो, (उत) और (श्वश्र्वाः) सास के सम्बन्ध में (सम्राज्ञी) राजेश्वरी हो।

    टिप्पणी

    [व्याख्या— सम्राज्ञी का अर्थ है, सम्यक् राज्य करने वाली। ससुर, सास, देवर, ननान्द आदि पर तथा अन्य गृहवासियों पर सम्राज्ञी, सेवावृत्ति से राज्य करे। यह ही सम्यक्-राज्य है। श्वशुरेषु में बहुवचन पति के पिता, चचा, ताऊ आदि का सूचक है। वर्तमान में विवाह के अनन्तर प्रायः नववधू का अपने पति के सम्बन्धियों के साथ कलह रहता है। कारण यह है कि पति के सम्बन्धी, नववधू को वह अधिकार नहीं देना चाहते, जिस अधिकार की कि यह मन्त्र वकालत कर रहा है। सास और ननान्दें आदि नववधू को अपनी दृष्टि से चलाना चाहती हैं जिस से कि वधू उन के नियन्त्रण में रहे।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे वधु ! तू (श्वशुरेषु) श्वशुरों में (सम्राज्ञी एधि) महाराणी होकर रह। (उत् देवृषु सम्राज्ञी) और देवरों के बीच में भी महाराणी बनकर रह। (ननान्दुः सम्राज्ञी) ननद के समक्ष भी तू महाराणी के समान आदरयुक्त होकर रह। (उत श्वश्र्वाः सम्राज्ञी) और सास की दृष्टि में भी महाराणी बनकर रह।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Be the queen of love and affection among your in-laws, the father-in-law and his peers, be the queen of love and respect among your husband’s brothers and cousins, be the darling queen of the heart of your sister- in-law, and the ruling love of your mother-in-law.

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    Translation

    May you prosper as a queen suprème among your father-in-law, and also queen supreme among your brothers-in-law. Be a queen to your sister-in-law, and also a queen to your mother-in-law.

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    Translation

    O bride you shine in splendor of imperial queen over your husband’s fathers, and over your husband’s brothers, you shine and have supreme control over your husbands' sisters and his mother.

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    Translation

    Over thy husband's father and his brothers be imperial queen. Over thy husband’s sister and his mother bear supreme control.

    Footnote

    Fathers: Father, uncles, grandfather. See Rig, 10-85-46. Maharshi Dayananda has commented upon the verse in the Sanskar Vidhi in the chapter on marriage.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४४−(सम्राज्ञी) सम्यक् प्रकाशमाना।राजराजेश्वरी (एधि) भव (श्वशुरेषु) श्वशुरादिषु मान्येषु (सम्राज्ञी) (उत) अपि (देवृषु) म० ३९। पत्यः कनिष्ठज्येष्ठभ्रातृषु (ननान्दुः) नञि च नन्देः। उ० २।९८।नञ्+टुनदि सन्तोषे-ऋन् वृद्धिश्च। भर्तृभगिन्याः (सम्राज्ञी) (एधि) (उत) (श्वश्र्वाः) श्वशुरस्योकाराकारलोपश्च वक्तव्यः। वा० पा० ४।१।६८। श्वशुर-ऊङ्उकारस्य अकारस्य च लोपः। श्वशुरस्य भार्यायाः ॥

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