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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 45
    ऋषिः - आत्मा देवता - बृहती गर्भा त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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    याअकृ॑न्त॒न्नव॑य॒न्याश्च॑ तत्नि॒रे या दे॒वीरन्ताँ॑ अ॒भितोऽद॑दन्त। तास्त्वा॑ज॒रसे॒ सं व्य॑य॒न्त्वायु॑ष्मती॒दं परि॑ धत्स्व॒ वासः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । अकृ॑न्तन् । अव॑यन् । या: । च‍॒ । त॒त्नि॒रे । या: । दे॒वी: । अन्ता॑न् । अ॒भित॑: । अद॑दन्त । ता: । त्वा॒ । ज॒रसे॒ । सम् । व्य॒य॒न्तु॒ । आयु॑ष्मती । इ॒दम् । परि॑ । ध॒त्स्व॒ । वास॑: ॥१.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याअकृन्तन्नवयन्याश्च तत्निरे या देवीरन्ताँ अभितोऽददन्त। तास्त्वाजरसे सं व्ययन्त्वायुष्मतीदं परि धत्स्व वासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । अकृन्तन् । अवयन् । या: । च‍ । तत्निरे । या: । देवी: । अन्तान् । अभित: । अददन्त । ता: । त्वा । जरसे । सम् । व्ययन्तु । आयुष्मती । इदम् । परि । धत्स्व । वास: ॥१.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (याः) जिन [स्त्रियों]ने (अकृन्तन्) काता है, (च) और (याः) जिन्होंने (तत्निरे) तन्तुओं को फैलाया है, और (अवयन्) बुना है, और (याः देवीः) जिन देवियों ने (अन्तान्) [वस्त्र के] आँचल (अभितः) सब प्रकार से (अददन्त) दिये हैं। [हे वधू !] (ताः) वे सब स्त्रियाँ (त्वा)तुझे (जरसे) बड़ाई के लिये (सं व्ययन्तु) वस्त्र पहिनावें, (आयुष्मती) बड़ीआयुवाली तू (इदं वासः) इस वस्त्र को (परि धत्स्व) धारण कर ॥४५॥

    भावार्थ

    बड़ी-बड़ी गुणवतीस्त्रियाँ आदर करके सुन्दर-सुन्दर वस्त्र वधू को देकर पहिनावें और आशीर्वाददेवें कि वह प्रसन्न रहकर बड़ा यश प्राप्त करे ॥४५॥

    टिप्पणी

    ४५−(याः) स्त्रियः (अकृन्तन्) कृती वेष्टने, छेदने च। वेष्टितवत्यः (अवयन्) वेञ् तन्तुसन्ताने।ओतवत्यः (याः) (च) (तत्निरे) तन्तून् विस्तारितवत्यः (याः) (देवीः) देव्यः।दिव्यगुणाः स्त्रियः (अन्तान्) वस्त्रान्तान् (अभितः) सर्वतः (अददन्त) दद दाने।दत्तवत्यः (ताः) (त्वा) त्वां वधूम् (जरसे) स्तुतिलाभाय (सं व्ययन्तु) व्येञ्स्यूतौ, वरणे च। आच्छादयन्तु (आयुष्मती) पूर्णजीवनवती त्वम् (इदम्) (परि धत्स्व)परिधारय (वासः) वस्त्रम् ॥

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    विषय

    घर में काते-बुने गये वस्त्रों का धारण

    पदार्थ

    १. हे (आयुष्मति) = दीर्घ जीवन को प्रास करानेवाली नववधु! (या:) = जिन साड़ियों को (देवीः अकृन्तन्) = घर की देवियों ने स्वयं काता है और (अवयन्) = बुना है (याः च तन्तिरे) = और जिनको घर की देवियों ने ही ताना है तथा (याः) = जिनको इन्होंने (अभितः अन्तान् अददन्त) = दोनों ओर के आँचलों [सिरों] को सिया है, (ता:) = वे साड़ियाँ (त्वा) = तुझे (जरसे संव्ययन्तु) = दीर्घ जीवन के लिए आच्छादित करनेवाली हों। हे आयुष्मति ! (इदं वासः परि धत्स्व) = इस वस्त्र को ही धारण कर।

    भावार्थ

    घर में काते-बुने गये वस्त्रों के धारण की परिपाटी ही उत्तम है। इन वस्त्रों के एक-एक सूत्र में प्रेम का अंश पिरोया हुआ होता है तथा व्यर्थ के फैशन से भी बचाव रहता हैं।

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    भाषार्थ

    (याः) जिन (देवीः) देवियों ने (अकृन्तन्) सूत काता है, (अवयन्) और उसे बुना है, (याः च) और जिन देवियों ने (अभितः) वस्त्र के चारों ओर (अन्तान्) किनारे (अददन्त) दिये हैं, (ताः) वे देवियां (त्वा) तुझे, हे वधु! (जरसे) जरावस्था तक के लिये (संव्ययन्तु) हाथ से कते-बुने वस्त्रों द्वारा ढांपती रहें। (आयुष्मती) प्रशस्तायु वाली तू (इदम्) इस (वासः) वस्त्र को (परिधत्स्व) पहिना कर।

    टिप्पणी

    [व्याख्या— मन्त्र में सूत कातना, वस्त्र बुनना, वस्त्रों के किनारे बनाना,—देवियों का गृह कौशल दर्शाया है। नववधू को यह उपदेश भी दिया है कि तू हाथ से कते बुने वस्त्रों को धारण किया कर, और आयु भर ऐसे वस्त्र ही धारण किया कर। गृह-उद्योग का यह एक दृष्टान्त है।]

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    विषय

    गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।

    भावार्थ

    हे (आयुष्मति) दीर्घ आयु वाली श्रीमति ! वरानने ! (याः) जिन साड़ियों को (देवीः) घर की उत्तम देवियों ने स्वयं (अकृन्तन्) काता, (अवयन्) स्वयं बुना, (याः च) और जिनको (तत्निरे) ताना और (याः) जिनके (अभितः अन्तान्) दोनों तरफ़ के अंचरों को (ददन्त) गांठ देकर बनाया (ताः) वे साड़ियाँ (त्वा) तुझको (जरसे) वृद्धावस्था तक (सं व्ययन्तु) आच्छादित करें। हे आयुष्मति ! (इदं) यह (वासः) वस्त्र (परिधत्स्व) पहन ले।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘या अतन्वत’ (द्वि०) ‘याश्च देवीस्तन्तू न मितोततन्थ’ इति पा० गृ० सू०। ‘देव्योऽन्तान्’ (तृ०) ‘तास्त्वादेवीर्जरसा संप्ययस्व’ पा० गृ० सू०, मै० ब्रा०। गृह्यसूत्रेषु ‘अभितोततन्थ’ , इति स पाठः। ‘अभितोददन्त’ इत्यनुकृत्यप्रवृत्तः। ‘अभितस्ततन्थे’ ति सन्ध्यनुसारः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Those noble women who spun the thread, who did the weaving, those who sewed the garment to the ends of completion, may they provide the raiment for you till a happy full age. With this good will and best wishes, please put on this garment.

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    Translation

    The divinities that have spun, woven and that have stretched (the wrap), the divinities that have drawn the ends on all sides, may they weave you nicely upto ripe old age. Enjoying a good long life, endue this garment.

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    Translation

    O bride, blessed with long life put on this Upavastra which these ladies of my family who prepared fabrics, spun the thread and wove this cloth, and who in the process of weaving stretched and arranged the knot of warp and weft, may provide you with the cloth till old age.

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    Translation

    Ladies who have spun, and woven and extended this garment, who have drawn its ends' together, may they invest thee full long existence. Heiress of lengthened life, put on this garment.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४५−(याः) स्त्रियः (अकृन्तन्) कृती वेष्टने, छेदने च। वेष्टितवत्यः (अवयन्) वेञ् तन्तुसन्ताने।ओतवत्यः (याः) (च) (तत्निरे) तन्तून् विस्तारितवत्यः (याः) (देवीः) देव्यः।दिव्यगुणाः स्त्रियः (अन्तान्) वस्त्रान्तान् (अभितः) सर्वतः (अददन्त) दद दाने।दत्तवत्यः (ताः) (त्वा) त्वां वधूम् (जरसे) स्तुतिलाभाय (सं व्ययन्तु) व्येञ्स्यूतौ, वरणे च। आच्छादयन्तु (आयुष्मती) पूर्णजीवनवती त्वम् (इदम्) (परि धत्स्व)परिधारय (वासः) वस्त्रम् ॥

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