अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
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स्तोमा॑आसन्प्रति॒धयः॑ कु॒रीरं॒ छन्द॑ ओप॒शः। सू॒र्याया॑ अ॒श्विना॑व॒राग्निरा॑सीत्पुरोग॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठस्तोमा॑: । आ॒स॒न् । प्र॒ति॒ऽधय॑: । कु॒रीर॑म् । छन्द॑: । ओ॒प॒श: । सू॒र्याया॑: । अ॒श्विना॑ । व॒रा । अ॒ग्नि: । आ॒सी॒त् । पु॒र॒:ऽग॒व: ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तोमाआसन्प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः। सूर्याया अश्विनावराग्निरासीत्पुरोगवः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तोमा: । आसन् । प्रतिऽधय: । कुरीरम् । छन्द: । ओपश: । सूर्याया: । अश्विना । वरा । अग्नि: । आसीत् । पुर:ऽगव: ॥१.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(स्तोमाः) स्तुतियोग्य गुण (सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली]कन्या के (प्रतिधयः) वस्त्रों के अंचल [समान] (आसन्) हों, (कुरीरम्) कर्तव्यकर्म और (छन्दः) आनन्दप्रद वेद (ओपशः) मुकुट [समान हो] और (अग्निः) अग्नि [शारीरिक और बाहिरी अग्नि द्वारा स्वास्थ्य, शिल्प, यज्ञ आदि विधान] (पुरोगवः)अग्रगामी [पुरोहित समान] (आसीत्) हो, [जब कि] (अश्विना) विद्या को प्राप्त दोनों [वधू वर] (वरा) परस्पर चाहनेवाले [वा श्रेष्ठ गुणवाले] हों ॥८॥
भावार्थ
जब कन्या ब्रह्मचर्यसे विद्या प्राप्त करके स्वास्थ्य आदि विधान में निपुण हो और जब वैसा ही वरब्रह्मचारी विद्वान् हो, तब दोनों परस्पर विवाह की कामना करें ॥८॥मन्त्र ८-१३कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।८-१३ ॥
टिप्पणी
८−(स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (आसन्) स्युः (प्रतिधयः) प्रतिधीयन्ते ये। वस्त्रान्ताः (कुरीरम्) कृञ उच्च। उ० ४।३३। डुकृञ्करणे-ईरन्। कर्तव्यं कर्म (छन्दः) आह्लादको वेदः (ओपशः) आङ्+उप+शीङ् शयने-ड।शिरोभूषणम्। मुकुटः (सूर्यायाः) म० ६। (अश्विना) अ० २।२९।६। अश्वी च अश्विनी चअश्विनौ। पुमान् स्त्रिया। पा० ३।२।६७। इत्येकशेषः। अश्विनौ... राजानौपुण्यकृतौ-निरु० १२।१। प्राप्तविद्यौ वधूवरौ (वरा) वृञ् वरणे-अप्। वरश्च च वरा चवरौ। परस्परेच्छुकौ। श्रेष्ठौ (अग्निः) शारीरिको बाह्यो वा अग्निः (आसीत्) स्यात् (पुरोगवः) गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। पुरस्+गो-टच्। अग्रगामी। पुरोहितः ॥
विषय
जीवन-साथी का अन्वेषण
पदार्थ
१.(स्तोमा:) = प्रभु के स्तोम ही नवयुवति को (प्रतिधयः आसन्) = [प्रतिधि-Food] भोजन दें। जिसप्रकार अन्न का भोजन शरीर की पुष्टि का कारण बनता है, उसीप्रकार प्रभु के स्तोत्र इसकी अध्यात्म पुष्टि का कारण बनते हैं। (छन्दः) = वासनाओं से बचानेवाले [छद आवरणे] वेदमन्त्र ही इसके (कुरीरम्) = शिरोवस्त्र [A kind of head dress for women] व (ओपश:) = शिरोभूषण थे। इन छन्दों के द्वारा ही इसके मस्तिष्क की शोभा थी। २. (सूर्यायाः) = सूर्या के (अश्विना) = माता पिता कर्मव्यात [अशू व्याप्ती] जनक व जननी ही (वरा) = इसके साथी का वरण करनेवाले थे। उन्होंने सूर्या के जीवनसंगी को ढूंढने का काम आरम्भ किया। इनके इस कार्य में (अग्निः पुरोगवः आसीत्) = ज्ञानी ब्राह्मण ही इनका अगवा, पथप्रर्दशक था। वस्तुतः विद्यार्थियों के आचार्य ही अग्नि हैं। वे इनके शिक्षक होने से इनके गुण-कर्म-स्वभावों से परिचित होने के कारण ठीक चुनाव कर पाते हैं। वे आचार्य परामर्श देते हैं। उस परामर्श से माता-पिता देखभाल करते हैं और अन्त में सन्तानों की स्वीकृति होने पर ये सम्बन्ध परिपक्व हो जाते हैं।
भावार्थ
प्रभु-स्तोत्र ही सुर्या का भोजन है। वेदमन्त्र ही उसके शिरोवस्त्र व शिरोभूषण हैं। माता-पिता इस सूर्या के जीवनसाथी को ढूँडने का यत्न करते हैं। आचार्य इस कार्य में उनका सहायक होता है।
भाषार्थ
(स्तोमाः) ऋचाओं के गेयस्वरूप (आसन्) थे (प्रतिधयः) प्रत्येक अंग पर धारण करने योग्य आभूषण, (छन्दः) वैदिक छन्द या अथर्ववेद के मन्त्र थे (कुरीरम्, ओपशः) कुरीर और ओपश नाम वाले आभूषण। (अश्विना) अश्वों पर आरूढ़ या द्यौः और पृथिवी के अथवा सूर्य और चन्द्र के गुणों वाले माता-पिता (सूर्यायाः) सूर्या-ब्रह्मचारिणी का वरण अर्थात् चुनाव करने वाले थे, परन्तु (अग्निः) सूर्या सम्बन्धी अग्नि अर्थात् आग्नेयरूप रजोधर्म (पुरोगवः) चुनाव में अग्रगामी रूप (आसीत्) था। प्रचलित संस्कृत भाषा की दृष्टि से “आसीत्, आसन्" के भूतकाल परक अर्थ किये गए हैं। "छन्दसि लुङ्लङ्लिटः" (अष्टा० ३।४।६) द्वारा लुङादि सब कालों में प्रयुक्त होते हैं। वर्तमान काल में भी इन का प्रयोग होता है।
टिप्पणी
[प्रतिधयः = परिधयः (पैप्पलाद शाखा)। प्रतिधि=आभूषणों को "पर्याणद्धं विश्वरूपं यदस्ति" (१४।२।१२) में "पर्याणद्ध" पद द्वारा सूचित किया है। प्रतिधि = आभूषण, कुरीर और ओपश से भिन्न हैं। कुरीर और ओपश स्त्रियों के शिरोभूषण है। यथा “कुरीरमस्य शीर्षणि कुम्भं चाधि नि दध्मसि" (अथर्व० ६।१३८।३); तथा “क्लीबं कृध्योपशिनमथो कुरीरिणं कृधि।" (अथर्व० ६।१३८।२)। व्यभिचारी पुरुष को क्लीव अर्थात् नपुंसक बना कर उस के सिर पर कुरीर और ओपश बांधने का विधान मन्त्रों में हुआ है। विवाह के समय स्त्री को "कलीरा" बांधा जाता है, जो कि कुरीर का विकृतरूप प्रतीत होता है। छन्दः = इस से अथर्व का भी ग्रहण है। यथा “छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत" (यजु० ३१।७) में छन्दांसि का अभिप्राय है अथर्ववेद या अथर्ववेद के मन्त्र। प्रतिधयः१— इस का अर्थ रथ के पहिये की पुट्ठियां भी किया जाता है, जिन्हें परस्पर जोड़ कर पहिया तैयार किया जाता है। ये पुठ्ठियां परस्पर मिल कर परिधिरूप हो जाती हैं। अतः प्रतिधयः = परिधयः (पैप्पलाद शाखा) परिधि केन्द्र के चारों ओर होती है। इस परिधि में केन्द्र सुरक्षित रहता है। स्तोम अर्थात् सामगान के लिए मन्त्रों के गेयस्वरूप, मानो सूर्यारूपी केन्द्र की परिधियां थीं। इन सामगानों द्वारा सुरक्षित सूर्या थी। सामगानों तथा तम्मन्त्रनिष्ठ सदुपदेशों द्वारा सूर्या, अपने-आप को, कुविचारों, दुर्व्यसनों तथा दुःख क्लेश से बचाए रखती थी तथा "यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम्" (अथर्व० ८।२।२५) में ब्रह्म अर्थात् मन्त्र और तदुपदिष्ट परमेश्वर को जीवन के लिए परिधिरूप कहा भी है। स्तोमाः— वैदिक मन्त्र जब गाए जाते हैं तब मन्त्रों के कई पद और पाद बार बार दोहराए जाते हैं, कहीं कहीं ह्रस्व स्वरों को दीर्घ तथा प्लुत में परिवर्तित करना होता है, कई वार मध्य-मध्य में आलाप भी किया जाता है। गान में मन्त्रों के इस समूचे स्वरूप को गेयस्वरूप या स्तोम कहते है, तथा आलाप के उपयोगी निरर्थक शब्दों को स्तोम कहते हैं। इस प्रकार मन्त्रों के नित्यस्वरूप और गेयस्वरूप में भेद हो जाता है। इन गेयस्वरूपों को स्तोम कहते हैं। व्याख्या— अश्विना = अश्विनौ, अर्थात् घर के माता-पिता। निरक्त १२।१।१ में कहा है कि "अश्विनौ द्यावापृथिव्यादित्येके। सूर्याचन्द्रमसादित्येके। तथा अथर्व० १४।२।७१ में कहा है कि "द्यौरहं पृथिवी त्वम्। ताविह सं भवाव प्रजामा जनयावहै"। अर्थात् वर वधू को कहता है कि मैं द्यौः हूं तु पृथिवी है। हम दोनों इकट्ठे हों और सन्तानोत्पादन करें। इस द्वारा वर द्यौः के गुणों वाला और वधू पृथिवी के गुणों वाली कही गई है। इसी प्रकार मन्त्र १४।१।१ में पति को सूर्य, तथा १४।१।२३,२४ में वधू को चन्द्रमा द्वारा वर्णित किया है। इस द्वारा भी वर और वधू के गुणों पर प्रकाश डाला है। वर के माता-पिता वधू के चुनाव में वर के सहायक होते हैं, परन्तु अन्तिम फैसला वर-वधू ने स्वयं करना है। आपस्तम्ब गृह्यसूत्रों में भी कहा है कि "सुहृदः समवेतान् मन्त्रवतो वरान् प्रहिणुयात्" (पटल २, खण्ड ४, सू० १), अर्थात् इकट्ठे हुए या परस्पर एक से विचार वाले तथा विद्वान् मित्रों को वररूप में अर्थात् कन्या का चुनाव करने के लिए भेजे। इस सूत्र में भी, विवाहेच्छु व्यक्ति को वरणकर्म में सहायता देने वालों को "वरान्" कहा है। अतः मन्त्र में वरा=वरौ द्वारा वर के माता-पिता का ही ग्रहण समझना चाहिये। वर-वधू के चुनाव में माता-पिता के परामर्श को आवश्यक समझा गया है। विवाहार्थ सूर्या के चुनाव में, सूर्या में प्रकट हुई अग्नि का होना अनिवार्य है। अभिप्राय यह है कि युवति की अग्निशक्ति में जब विवाह की उग्र२ इच्छा उत्पन्न हो, तभी सूर्या के माता-पिता सूर्या के लिए सदृश पति का वरण करें, उस से पूर्व नहीं। सूर्या ब्रह्मचारिणी है। इस ने पर्याप्त आयु संयम में बिताई है। यदि यह जीवन भर ब्रह्मचारिणी रहना चाहे तो इसे विवाह के लिए बाधित न करना चाहिये। युवति के मासिक धर्म को मन्त्र में अग्नि कहा है। मासिक-धर्म का वर्ण लाल होता है जो कि अग्नि का वर्ण है। मासिकधर्म प्रेरक है गृहस्थधर्म का या गृहस्थ भावना का। युवति की अग्नि में विवाहेच्छा, विवाह का पुरोगव रूप है, अग्रगामी रूप है। मासिकधर्म वाली युवति को रजस्वला कहते हैं। रजस् को व्याख्येय मन्त्र में अग्नि कहा है। रजस्वलावस्था में रजोगुण की भावना जागरित हो जाती है। मासिकधर्म के प्रकट होते भी सूर्या में जब तक विवाहेच्छा प्रकट न हो, तब तक उस का विवाह न करना चाहिये। आयुर्वेद में सोम अर्थात् वीर्य को शुक्र और ऋतुधर्म को आग्नेय कहा है, (देखो मन्त्र १ की व्याख्या)। इस लिये मन्त्र ८ में अग्नि द्वारा ऋतुधर्म का ग्रहण किया है।] [१. प्रतिधयः= Cress plecess (ह्विटनी)। २. "सूर्या यत् पत्ये शंसन्तीम्" (अथर्व० १४।१।९)।]
विषय
गृहाश्रम प्रवेश और विवाह प्रकरण।
भावार्थ
जब (स्तोमाः) वेद के स्तुतिपाठ, (प्रतिधयः) उस कन्या के ‘प्रतीधि’ प्रतिपालक हों। और (सूर्यायाः) कन्या की (छन्दः) अभिलाषा (कुरीरम्) करने योग्य, अपने पति से मिलने की परम अभिलाषा-मैथुन (अपशः) और उसके समीप शयन या सहवास की हो। इसके बाद (अश्विना) रात दिन के समान सदा परस्पर साथ रहने वाले वे दोनों (वरा) एक दूसरे को वरण करने वाले हों। और उसके इस कार्य में (अग्निः) अग्नि और उसके समान ज्ञान प्रकाश से युक्त आचार्य ही (पुरोगवः) उसका पुरोहित या साक्षी (आसीत्) हो। यहां महर्षि दयानन्दकृत संस्कारविधि में विवाह संस्कार के योग्य काल का निर्णय देखने योग्य है। “जब कन्या रजस्वला होकर पृष्ठ ३६-३७ में लिखे प्रमाणे शुद्ध हो जाय तब जिस दिन गर्भाधान की रात्रि निश्चित की हो उसमें विवाह करने के लिये प्रथम ही सब सामग्री जोड़ रखनी चाहिये।” इति दयानन्द संस्कारविधि १४ संस्क० पृ० १४२-४३ ॥ कुरीरम्—क्रियते तत् कुरीरः—मैथुनं वा। इति दयानन्द उणादिभाष्ये। उणा० ४। ३३ ॥ ओपशः—आङ् उपपूर्वात् शेतेरसुन्। ओपशः सहशयनम्।
टिप्पणी
(प्र०) ‘परिधयः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। आत्मा देवता। [१-५ सोमस्तुतिः], ६ विवाहः, २३ सोमार्कों, २४ चन्द्रमाः, २५ विवाहमन्त्राशिषः, २५, २७ वधूवासः संस्पर्शमोचनौ, १-१३, १६-१८, २२, २६-२८, ३०, ३४, ३५, ४१-४४, ५१, ५२, ५५, ५८, ५९, ६१-६४ अनुष्टुभः, १४ विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १५ आस्तारपंक्तिः, १९, २०, २३, २४, ३१-३३, ३७, ३९, ४०, ४५, ४७, ४९, ५०, ५३, ५६, ५७, [ ५८, ५९, ६१ ] त्रिष्टुभः, (२३, ३१२, ४५ बृहतीगर्भाः), २१, ४६, ५४, ६४ जगत्यः, (५४, ६४ भुरिक् त्रिष्टुभौ), २९, २५ पुरस्ताद्बुहत्यौ, ३४ प्रस्तारपंक्तिः, ३८ पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक्, [ ४८ पथ्यापंक्तिः ], ६० पराऽनुष्टुप्। चतुःषष्ट्यृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Stomas, Vedic songs of adoration, are her beauty aids, Vedic hymns, her cushion and crown, Ashvins, knowledge and complementary practice, her choice friends, and Agni, light of life, her pioneer and guide.
Translation
Hymns (the Stomas) are the cross-bars (of the car); the kurira metre is the thong of the whip; the twin divines are groomsmen of the bride and fire divine becomes leader of the procession. (Rg. X.85.8)
Translation
Stomas, the Riks for praise become the men of bridal side, Kurira metre becomes her head ornament, Ashvinau, the Prana and Apana become the seekers of her betrothal and Agni, the fire becomes leader.
Translation
May the Vedic verses be her guardians. May the performance of duty, and knowledge of the Vedas be the ornament of the head for the girl. May both husband and wife love each other. May the Acharya brilliant with knowledge like fire be her precursor.
Footnote
Acharya: Guru, preceptor. See Rig, 10-85-8
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (आसन्) स्युः (प्रतिधयः) प्रतिधीयन्ते ये। वस्त्रान्ताः (कुरीरम्) कृञ उच्च। उ० ४।३३। डुकृञ्करणे-ईरन्। कर्तव्यं कर्म (छन्दः) आह्लादको वेदः (ओपशः) आङ्+उप+शीङ् शयने-ड।शिरोभूषणम्। मुकुटः (सूर्यायाः) म० ६। (अश्विना) अ० २।२९।६। अश्वी च अश्विनी चअश्विनौ। पुमान् स्त्रिया। पा० ३।२।६७। इत्येकशेषः। अश्विनौ... राजानौपुण्यकृतौ-निरु० १२।१। प्राप्तविद्यौ वधूवरौ (वरा) वृञ् वरणे-अप्। वरश्च च वरा चवरौ। परस्परेच्छुकौ। श्रेष्ठौ (अग्निः) शारीरिको बाह्यो वा अग्निः (आसीत्) स्यात् (पुरोगवः) गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। पुरस्+गो-टच्। अग्रगामी। पुरोहितः ॥
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